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________________ ५२० वरणानुयोग दर्शनीय प्राकार आदि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि सूत्र 30४-८०७ जे यावणे तहप्पगारा एमपगाराहि भासाहि या वइया अन्य जितने भी ऐसे व्यक्ति हों, वे इस प्रकार की भाषाओं णो कुष्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एतप्पगाराहि से राम्बोधित करने पर कुपित नहीं होते अनः ऐसी असावध भासाहि असावज-जाव-अमूतोवघातियं अभिकंस्य भासेज्जा। यावत् जीवोपघात रहित भाषा विचारपूर्वक बोलें । -आ. सु. २, अ. ४, उ.२, सु. ५३४ दरिसणिज्जे बप्पाइए असावज्ज मासाबिही- दर्शनीय प्राकार आदि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा वेगतियाई रुवाई पासेज्जा तं ८०५, साधु या गावी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, यथा-- जहा-वप्पाणि था-जाव-गिहाणि या तहा वि ताई एवं प्राकार-पावत्-भवनगृह को (कहने का प्रयोजन हो तो) उनके ववेज्जा, तं जहा-आरंमकडे ति बा, सावज्जकडे ति वा, सम्बन्ध में इस प्रकार कहे - यह प्राकार आरम्भ से बना है. पयत्तकर , सत्रद्यकृत है. या यह प्रयत्न-साध्य है। पासादियं पासादिए ति वा, दरिसणीयं दरिसणीए ति वा, इसी प्रकार जो प्रासादगुण युक्त हो उसे प्रासादीय, जो अभिरूवं अभिरूवे ति घा, पडिहवं पडिहवे ति बा। एतप्प- देखने योग्य हो उसे दर्शनीय, जो रूपवान् हो उस अभिरूप, जो मार भासं असावज्ज-जाव-अभूतोषगतियं अभिफंख समान रूप हो उसे प्रतिरूप कहे । इस कार विचारपूर्वक भासेज्जा। - आ. सु. २, अ. ४. उ. २. सु. ५३६ असावद्य-यावत्-जीतोपघात से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। उवक्खडिए असणाइए असावज्ज भासाविही- उपस्थत अशनादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि ८०६. से मिक्लू वा भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं था उक्स- ८०६. साधु या साध्वी अशन-यावत् र शादिम (असालों आदि जिपं पेहाए एवं वदेज्जा, तं जहा-आरंभकडे ति वा, से तैयार किये हुए) सुसंस्कृत आहार देखार इस प्रकार वह सावन्नको ति या, पयत्तकडे ति वा. भयं-भदए ति था, सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि गदार्ष आरम्भ से बना है. ऊरा-ऊसडे ति ता, रसियं-रसिए ति वा, माण्ण-मणुण्णे सावधवृत्त है, प्रवनसाध्य है या भद्र कल्याणकर आहार है उसे ति वा एतप्पगारं भासं असावज-जाव-अभूतोवधातियं कल्याणकर आहार कहे । उत्कृष्ट आहार है उसे उत्कृष्ट आहार अभिकख मासेज्जा। कहे । गररा आहार है उसे ग़रस आहार बेटे । मनोज्ञ आहार है -आ. सु. २. अ. ४. उ. २. मु. ५३८ उसे मनोज्ञ आहार कहे। इस प्रकार की असायद्य-यावत् जीवोपघान से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। पयत्तपक्के ति व पक्कमालने, (प्रयोजनबद्ध कहना हो तो) सुपक्य का प्रयत्न-पवन कहा पयतछिन ति व छिनमालवे। जा सकता है। सुच्छिन्न को प्रयत्नच्छिन्न कहा जा मकता है, कर्म पयत्तलठे त्ति व कम्महेउयं, हेतुक (शिक्षापूर्वक किए हुए) को प्रयललब्ध कहा जा सकता पहारगाह सि व गाढमालवे॥ है । गाढ़ (गहरे घाव वाले) को गाढ़ प्रहार कहा जा सकता है। -दस.अ.७, गा. ४२ परिवुड्ढकाए माणुस्साइए अखावज्ज भासाविही . पुष्ट शरीर वाले मनुष्यादि के सम्बन्ध में असावध भापा विधि-- २०७. से मिकावू वा भिक्खूणी या माणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं ८०७. संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी वा, मिगं बा. पसु वा. पक्विं दा. सरीसिवं वा, जलयरं था, मनुष्य, बैल, भैमा, मृग, पशु, पक्षी, सरिनृप, जनचर आदि सत्तं परिषद्धकार्य पेहाए एवं वदेज्जा - परिपड्काए ति किसी भी विशालकाय प्राणी को देखबार से कह सकता है कि वा, उचितकाए ति वा, विरसंघयणे ति वा, चितमंस- यह पुष्ट शरीर वाला है. उचितकार है. इड़ संहनन घाला है, सोणिते ति वा, बहुपडिपुण्ण इंबिए ति वा । एतप्पगारं भासं या इसके शरीर में रक-मांग संचित हो गया है, इसकी सभी असावज-जाद-अभूतोवघातियं अभिकंच मासेज्जा । इन्द्रियों परिपूर्ण हैं । इस प्रकार की असावद्य-यावत्-जीवोपघात -आ. म. २, अ. ४, उ. २, मु. ५३६ रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। १ परिवुढे ति णं बूया, बूया उबचिए त्ति य । संजाए पीणिए या वि, महाकाए त्ति आलबे ॥ -दस. अ. ७, गा. २३
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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