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________________ सूत्र ८०८-८११ गो आदि के सम्बन्ध में असावच भाषा विधि चारित्राचार [५२१ विधि निषेध कल्प-२ गो आइसु असावज्ज भासा विही गो आदि के सम्बन्ध में असायद्य भाषा विधि८०८, से भिक्खू वा भिक्खूणी वा विस्वरुवाओ गाओ पेहाए एवं ८०८, साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गो जाति के ववेमा तं जहा जुबंगवे ति वा, घेणु ति वा, रसवती ति वा, पशुओं को देखकर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि- यह हस्से इवा, महल्ल इवा महत्वए ति वा, संबहणे ति या'। गाय युवा है, प्रौढ़ है. या दुधार है. यह बल छोटा है या बड़ा एतापगारं भासं असावज–जाव - अभूतोवघातियं अभिकंख है, बहुमूल्य है या भारवहन करने में समर्थ है इस प्रकार की णों मासेज्जा। -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४२ असावद्य-यावत्-जीवोपत्रात से रहित भाषा का प्रयोग करे । उज्जाणाइसु असावज्ज भासा विही उद्यानादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०६. से भिक्खू बा भिक्खूणी वा तहेब गंतुमुज्जाणाई पम्यताणि ८०६. साधु या साध्वी किसी प्रयोजनवा उद्यानों. पर्वतों या यणाणि य हक्खा महरूल पेहाए एवं वदेज्जा-तं जहा--- वनों में जाए, वहाँ विशाल वृक्षों को देखकर इस प्रकार कहे कि जातिमता ति वा, दोहखट्टा ति वा, महालया ति या, ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, दीर्घ (लम्बे) है. वृत्त (गोल) हैं, पयातसाला ति वा, विडिमसाला ति वा, पासादिया ति महालय हैं, इनकी शाखाएँ, 'फट गई हैं, इनकी प्रशाखाएँ दूर तक या, दरिसणीया ति या अभिरुवा ति था, पडिरूया तिवा। फैली हुई हैं, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले हैं. दर्शनीय है, एतप्पणारं भासं असावज---जाब -अभवोनमातिए अभि- अभिरूप है, प्रनिरूा हैं। इस प्रकार की असावा-यावत पंख भासेज्जा। -आ. सु. २. अ. ४, उ. ५. सु. ५४४ जीयोपघात-रहित भाषा वा विचारपूर्वक प्रयोग करें। वणफलेस असावज्ज भासा बिही वन फलों के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि८१०. से मिक्खू वा भिषखूणी वा बहुसंभूया वणफला पेहाए एवं ८१०. साधु या साध्वी अतिमात्रा में लगे हुए वन फलों को देख ववेज्जा तं जहा- असंबडा ति वा बहुणिकट्टिमफला ति वा, कर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि ये फल वाले वृक्ष-असंतृतबहुसंभूया ति वा, भूतरुवा ति वा । एतप्पगारं भासं फलों के भार से नम्र या धारण करने में असमर्थ है इनके फल असावजं-जाव-अभूतोवघातिय अभिकख भासेज्जा। प्रायः निष्पन्न हो चुके हैं. ये वृक्ष एक साथ बहुत-सी फलोत्पत्ति -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४६ काले हैं, या वे भूतरूम-कोमल फल हैं। इस प्रकार की असावध -यावत-जोवीपघात रहित भावा का विचारपूर्वक प्रयोग करे । ओसहिसु असावज्ज भासा विहो औषधियों के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि - ८११. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा बहुसंभूताओ ओसहीओ पहाए ५११. साधु या साची बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों को तहा वि एवं वदेज्जा, तं जहा-रुता ति वा, बहुसंभूया ति देख कर (प्रयोजनवश) इस प्रकार कह सकता है जैसे कि इनमें या, थिरा ति वा ऊसटा ति था, गमिया ति वा, पसूया ति बीज अंकुरित हो गये है, ये अब जम गई हैं, सुविकसित या वा, ससारा ति वा । एतप्पगारं मासं असावज-जाव-- निष्पन्नप्रायः हो गई हैं या अब ये स्थिर (उपघातादि से मुक्त) अभूतोवघातियं अभिकख भासेज्जा। हो गई है, ये ऊपर उठ गई हैं. ये भुट्टों, सिरों या वालियों से -आ. मु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४८ रहित हैं. अब ये भुट्टों आदि से युक्त है, या धान्यकण युक्त हैं। इस प्रकार की निरवद्य-यावत्-जीवोपघात से रहित भाषा विचारपूर्वक बोले । -- - - १ जुत्रं गवे ति गं बूया, धेणं रसदय ति य । रहस्से महल्लए वा बि, बए संबणे ति य || ---दस. अ. ७ गा.२५ २ तहेव गंतुमुज्जाणं पम्पयाणि वाणि य । रुक्खा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पण्ण ॥ जाइमता इमे रुपया दोहबट्टा महालया। पयायसाला विधिमा वए दरिमणि त्ति य ।। -दग. अ. ७, गा. ३०-३१ ३ असंथडा इमे अंजा बहुनिवदिमाफला । वएज्ज बहुसंभूया भूयस्व त्ति वा पुणो ।। -स. १.७, गा. ३३ ४ विरूढा बहुसंभूया थिय ऊसड़ा विय । गभियाओ पसूयाओ रासाराजो त्ति आलवे ।। --दस. ब. ७. गा. ३३
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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