SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२२] चरणानुयोग राब, रूप, गंध, रस और स्पर्शादि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि सूत्र ८१२-१३ सह-रूव-गंध-रस-फासेसु असावज्ज भासा विही- शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८१२. से भिक्खू वा भिक्खूगी या जहा बेगतिगाई सहाई सुणेज्जा ८१२. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, तथापि तहा वि ताई एवं बवेजा-तं जहा उनके सम्बन्ध में कभी बोलना हो तो इस प्रकार कह सकता है जैसे कि (राग द्वेष से रहित होकर) सुसद सुसद्देति वा, दुसई एसई ति वा । एतष्पगारं मासं सुशब्द को "यह सुशब्द है" और दुःशब्द को "यह दुःशब्द असावाज--जाव-अभूतोवधातिय अभिकख मासेम्जा। है" इस प्रकार की निरवद्य--- पावत् -जीवोपघात रहित भाषा विचारपूर्वक बोले । इस प्रकार स्पों के विषय में--- स्वाई-१. किण्हे तिवा, २. गीले ति वा, ३. लोहिए ति (१) काले को काला कहे, (२) नीले को नीला, (३) लाल वा, ४. हलिहे ति था, ५. सुश्किले ति वा को लाल, (४) पीले को पीला, (५) श्वेत को ग्वेत कहे। गन्धों के विषय में (कहने का प्रसंग आगे तो) गंधाई-१. मुस्मिगंधे ति बा, २. बुरिमगंधे ति वा (१) सुगन्ध को सुगन्ध और (२) दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे, रसों के विषय में कहना हो तोरसाई--१. तिताणि वा, २. कजुभाणि वा, ३. कसायाणि (१) तिक्त को तिक्त, (२) कडुए को कड़वा, (३) कसले को वा, ४. बंभिलाणी वा, ५. मनुराणि वा कसला, (४) खट्टे को खट्टा और (५) मधुर को मधुर कहे। इसी प्रकार स्पों के विषय में कहना हो तोफासाई-१. कसराणि वा, २. मडपाणि वा, ३. गरुयागि (१) कर्कश को कर्कश, (२) मृदु (कोमल) को मृदु, (३) वा, ४. सहयाणि वा, ५. सोयाणि वा, ६. उहाणि चा, गुरु (भारी) को गुरु, (४) लघु (हल्का) को लघु, (५) ठण्ड को ७. णिशाणि या, ८. लुक्खाणि वा। ठण्डा, (६) गर्म को गर्म, ७) चिकने को चिकना और () रूखे -आ. सु. २, अ.४,उ. २, सु. ५५० को रुखा कहे। एगंत ओहारिणी भासा णिसेहो एकान्त निश्चयात्मक भाषा का निषेध२१३. से भिकाजू वा भिक्खूणी वा इमाई वइ-आयाराइंन्सोन्या ८१३. साधु या साध्वी इन वचन (भाषा) के आचारों को सुनणिसम्मा इमाई अणायाराई अणापरियपुज्वाई जाणेज्जा- कर, हृदयंगम करके, पूर्व-मुनियों द्वारा अनानरित भाषा सम्बन्धो अनाचारों को जाने। जे कोहावा यायं विजंति, यथा- जो क्रोध से वाणी का प्रयोग करते हैं। जे माणा वा वायं विदंति, जो अभिमानपूर्वक वाणी का प्रयोग करते हैं। जे मामाए वा वायं विजंति, जो छल कपट सहित बोलते हैं, जेलोमा वा बाय विउंअंति, जो लोभ से प्रेरित हो बोलते हैं, जाणतो या फरसं वयंति, जो जानबूझ कर कठोर वचन बोलते हैं, अजाणतो वा फरस वर्षति । सम्बं चेयं सावसं वजेज्जा या अनजाने में कठोर वचन बोलते हैं, ये सब भाषाएं सावद्य विवेगमायाए-युवं चेयं जाणेज्जा, अधुयं यं जाणेज्जा (स-पाप) हैं, साधु के जिाए वर्जनीय है। विवेक अपनाकर साधु इस प्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे। वह साधु या माध्वी घब (भविष्यत्कालीन वृष्टि आदि के विषय में निश्चयात्मक) भाषा को जानकर उसका त्याग करे । अधम (अनिश्चयात्मकः) भाषा को भी जानकर उसका त्याग कर। असगं वा-जाव-साइम वा लभिय, गो समिय, मुंजिय, बह अशन-यावत्-स्वादिम आहार लेकर ही आएगा, या णो भुंजिय। आहार लिए बिना ही आएगा।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy