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________________ मूत्र ८१३ एकान्त निश्चयात्मक भाषा का निषेध चारित्राचार [५२३ अवुवा आगतो, अदुवा णो आगतो, वह आहार करके ही आएगा, या आहार कि बिना ही आ जाएगा। अनुवा एति, अदुवा णो एति, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, अनुवा एहिति. अदुवा णो एहिति, अथवा वह आता है या नहीं आता है, एत्य वि आगते, एत्व विणो आगते, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा, एत्य वि एति, एस्थ वि गो एति, वह वहाँ आया था, वह यहाँ नहीं आया था, एस्य वि एहति, एस्थ पिणो एहति । बह यहाँ आता है, वह यहां नहीं आता है, --आ. सु. २, अ. ४, उ. १. सु. ५२० वह यहाँ आएगा, वह यहां नहीं आयेगा (इस प्रकार की एकान्त निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग साधु-साध्वी न करे)। तम्हा गच्छामो रक्खामो, अमुग श णे भविस्सई । इसलिए-इम जाएंगे, कहेंगे, हमारा अमुक कार्य हो जाएगा, अहं वा गं करिस्सामि, एसो वा गं करिस्सई ।। मैं यह करूंगा अथवा यह (व्यक्ति) यह (कार्य) अवध्य करेगा-- एवमाई उ जा भासा, एसकालम्मि संकिया। यह और इस प्रकार की दूसरी भाषा को भविष्य सम्बन्धी होने संपयाईयम? वा, तं पि धीरो विवज्जए ।। के कारण (सफलता की दृष्टि से) मांकित हो अथवा वर्तमान और अतीत काल-सम्बन्धी अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीर पुरुष न बोले। अईम्मि य कालम्मी, पन्जुप्पश्चमणागए। ___ अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जिस अर्थ को जमहूँ तु न जाणेज्जा, एवमेयं ति नो वए । न जाने, उसे यह "इस प्रकार ही है" ऐसा न कहे । अईयम्मि य कालम्मी, पञ्चप्पलमगागए। अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस अर्थ में जत्व संका भवे तं तु. एवमेयं ति नो वए॥ शंका हो, उसे "यह इस प्रकार ही है"-ऐसा न कहे। अईयम्मि य कालम्मी, पच्चुप्पन्नमणागए। ___अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जो अर्थ निस्संकियं भवे जं तु, एवमेयं ति निदिसे ॥ निःशंकित हो (उसके बारे में) “यह इस प्रकार ही है" ऐसा - दस. अ. ७, गा. ६-१० कहे। तहेव साबण्जणुमोयणी गिरा, इसी प्रकार मुनि सावध का अनुमोदन करने वाली अवओहारिणी जा य परोषघाइणी। धारिणी (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध) और पर उपधातसे कोह लोह भयसा व माणवो कारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न बोले । न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ।। -दस. अ. ७, गा. ५४ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा णो एवं वदेम्जा---'नमयेवे ति साधु या सानी इस प्रकार न कहे कि "नभोदेव (आकाश वा, गरजदेवे ति वा, विज्जुदेवे सिवा, पवुटवेवे ति वा, देव) ६, गर्ज (मेघ) देव है, विद्यु लदेव है, प्रवष्ट (बरसता रहने मिवुद्ववेवे ति वा, पातु वा वासं, मा वा पद्ध, पिप्पाजतु वाला) देव है, या निवृष्ट (निरन्तर बरसने वाला) देव है, वर्षा वा सासं, मा वा णिप्पज्जतु, विभातु वा रयणी, मा वा बरसे तो अच्छा या न बरसे तो अच्छा, धान्य उत्पन्न हो या न विधातु उवेट वा सरिए, मा वा उदेउ, सो वा राया अयतु हो, रात्रि सुशोभित हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, वह मा वा जयतु ।" णो एपप्पगारं भासं भासेज्जा पण्ण राजा जीते या न जीते।': प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार की भाषा -आ. सु. २, अ. ४, उ. १, सु. ५३० नबोले । १ (क) बाओ वुटुं व सीउण्हं, खेमं धाये सियं ति वा । कयाणु होज्जा एयाणि ? मा वा होउ सि नो वए ।। (ख) तहेव मेहं व नहं वा माणवं न देवदेव ति चिरं वएज्जा । समुच्छिए उनए वा पोए वएपज वा 'बुदळे' बलाहए ति॥ --दस.अ.७, गा. ५१-५२
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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