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________________ उद्गम-दोष प्राक्कथन आहार दोष आहार शुद्धि से भाव शुद्धि और उससे संयम-साधना का निविघ्न सम्पन्न होना-पह एक सिद्धान्त-सम्मत तथ्य है। अतः उद्यम, उत्पादनादि दोषों से रहित आहार ही प्रासुक, एषणीय तथा उपभोग योग्य माना गया है। आहार के दोषों का यह संकलन दो भागों में विभक्त है। (१) एक सूत्र में एक दोष का प्ररूपण । (२) एक सूत्र में अनेक दोषों का प्ररूपण । इस संकलन में कुछ सूत्र विधि-निषेध के प्ररूपक हैं और कुछ मूत्र केवल निषेध के प्रकाक हैं। जिन सूत्रों में एक साथ अनेक दोषों का प्ररूपण है उनमें से कुछ दोष उदगम के हैं, कुछ दोष उत्पादन के हैं और कुछ दोष एषणा के हैं। इन सूत्रों में कुछ दोष ऐसे भी प्ररूपित है जिनके नाम भिन्न हैं किन्तु भाव भिन्न नहीं हैं। किन्तु ऐसे भी दोष हैं जिनका नामकरण कहीं नहीं मिलता फिर भी वे दोष ही हैं, क्योंकि कुछ सूत्रों में अग्राह्य पदार्थों के निषेध है अतः वे दोष ही हैं, कुछ दोषों के केवल प्रायश्चित्त सूत्र मिलते हैं किन्तु दोषों के सूत्र नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार कुछ दोषों के सूत्र मिलते है किन्तु उनके प्रायश्चित्त सूत्र नहीं मिलते हैं। ___ आगमों में "जग्गमउप्पायणेसणासुद्ध" आहार-शुद्धि का सूचक वह वाक्य अनेक स्थलों में उपलब्ध है किन्तु उद्गम और उत्पादन के दोषों की निश्चित संख्या काही उपलब्ध नहीं है। सभी उद्गम दोषों में प्रमुख दोष एक औदेशिक है, अन्य सभी उसके अवान्तर भेद हैं। प्रश्नव्याकरण सेंबर द्वार ५ सूत्र ६ में "एक्कारसपिंडदायसुख" यह चाक्य है-इसका तात्पर्य है-आचारांग द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम पिण्डेषणा अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में जितने दोष हैं उन सबसे रहित आहार शुद्ध माना गया है। उद्गम-उत्पादन के दोषों की संख्या यदि निश्चित होती तो इस मागम में संस्था का उल्लेख अवश्य होता । एषणा के दस दोषों की संख्या निश्चित हो गई थी अतः "दसहि में दोसेहि विष्पमुक्कं" इस धाक्य में संख्या का उल्लेख है किन्तु आगमों में इन दम दोषों के अतिरिक्त अन्य अनेक एषणा दोष उपलब्ध है। पिण्डनियुक्ति आदि में उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों की संख्या निश्चित है। संभव है नवदीक्षितों को कण्ठस्थ कराने के लिए किसी स्थविर ने प्रमुख दोषों की संख्या निश्चित करके गाथाबद्ध किये होंगे। आगमों में कुछ ऐसे दोष भी प्ररूपित हैं जो बयालीस दोषों से सर्वथा भिन्न है । परिभोगपणा के दोषों का प्ररूपण भगवती सूत्र में प्रतिपादित है । प्रस्तुत संकलन में दोषों का क्रम इस प्रकार संकलित किया गया है(१) एक सूत्र में अनेक दोषों का कथन है उसे प्रकीर्णक दोष से सूचित किया गया है। (२) एक सूत्र में एक दोष का कथन है उसे उदगम, उत्पादन और एषणा दोष के क्रम से रखा है। (३) ४२ दोष के सिवाय दोषों को–संखडी प्रकरण, शय्यातर पिंड व एषणा विवेक शीर्षक से संकलित किया गया है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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