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________________ ७३४] वरणानुयोग मन की एकाग्रता का फल मूत्र ३२२-३२८ उ.-मणसमाहारणयाए णं एगगं जणयह । एाग जण- उ०-मन-समाधारणा से यह एकाग्रता को प्राप्त होता है। इत्ता नाणपज्जवे जणयद । नाणपज्जवे जणइना एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवों (ज्ञान के विविध प्रकारां) सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्त न निज्जर। को प्राप्त होता है। ज्ञान-पर्यवों को प्राप्त कर सम्यकदर्शन को -उत्त. अ. २६, सु. ५८ विशुद्ध करता है और मिच्या-दर्शन को क्षीण करता है। एगग्गमणसं निवेसणयाए फलं मन को एकाग्नता का फल३२३. प. एपगमणसंनिवेसणयाए गं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? २२३. प्र.-भन्ते ! एका अस (आलम्बन) पर मन को स्थापित करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-एगग्गमणसंनिवेसणयाए गं चित्तनिरोह करेइ ।। उ.-एकान-मन की रथापना से गह चित्त वा निरोध --उत्त. अ. २६, मु.२७ करता है। TARA वचन-गुप्ति-३ बयगुती सरूवं वचनगुप्ति का स्वरूप३२४. संरम्भ समारम्भे, आरम्भ य तहेव य । ३२४, यतनाशीत यति संरम्भ, सबारम्भ और आरम्भ में ___षयं पक्त्तमाणं तु, नियत्तेन्ज जयं नई॥ अवर्तमान वचन का निवर्तन करे। -उत्त. ब. २४, गा. २३ चउविहा वइगुत्ती चार प्रकार की वचन गुप्ति३२५. समचा तहेव मोसा य, समता मोसा तहेव य । ३२५, सत्या, मृषा, सत्ता-मृषा और चौथी असरया-मृषा-इस घउत्थी असच्चमोसा, वइगुती चम्विहा ।। प्रकार वचन मुप्ति के चार प्रकार हैं। --उत्त. अ. २४, गा. २२ अपगुत्तस्स किच्चाई बचन गुप्त के कृत्य३२६. गुत्तो वईए व समाहिपत्ते, लेसं समाहटु परियथएज्ना ॥ ३२६. बचन से गुप्त साधु भाव समाधि को प्राप्त कर विशुद्ध -गूय. मु. १, अ.१०, मा. १५ लेण्या के साथ संगम में पराक्रम करे । वइगुत्ति पल्वर्ण वचनगुप्ति का प्ररूपण३२७. से नहतं भगवया पवेदितं आसपणेण जाणया पासया। ३२७, जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान महावीर अनुवा गुती बहगोयरस्स। ने जो सिद्धान्त कहे है उनका उसी प्रकार से प्ररूपण करे अथवा -आ.सु. १, अ.८, उ. १, सु. २०१ वाणी विषयक गुप्ति से मौन साध कर रहे । बहगुत्तयाए फले वचन गुप्ति का फल३२८. ५०-वयगुत्तयाए पं मन्ते जीवे कि जणयह? ३२८. प्र०-भन्ते ! वाग्-गुप्तता (कुशल वचन प्रयोग) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-वयगुत्तयाए णं निधियारं जणयह "निविषयारेणं उ-वाग्-गुप्तता से वह निर्विकार भाव को प्राप्त होता जोवे वगुत्ते अज्ञप्पजोगसाहणजुत्ते" यावि पवा। है। निर्विकार भाव प्राप्त वाग्-गुप्त जीव अध्यात्म-योग के साधन -उत्त. ४. २६. गा. ५६ चित्त की एकाग्रता आदि से युक्त हो जाता है। १ संकप्पो सरंभ, परितापको भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ, सुई वाई सम्वेसि ।। -उत्त. न. २४, टीका हिसा का संकल्प संरम्भ, प्राणियों को परिताप (कष्ट) देना समारम्भ, और प्राणियों को उपद्रक्षित करना आरम्भ है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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