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७०८ ] चरणानुयोग
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जे भिक्खू लव- गवेसियं पहिं घरे घरतं वा साइज ।
सेवामा परिहारद्वा - नि. उ. २, सु. २७-३१ है ।
मा. सु. १, अ. २, उ. ५. सु.
,
काष्ठवण्ड वाले पादप्रछन का विधि-निषेध
आ. सु. १, अ.
नि. उ. ५, सु. ६५
नि. उ. १६. सु. १६-२०
पायपुंडण एषणा :
[पाय
एषणा का स्वतन्त्र प्रकरण आचारांग सूत्र में नहीं है। आगमों में जहाँ जहाँ पायछण एषणा के स्वतन्त्र पाठ मिले हैं वे इस प्रकरण में संकलित किये गये हैं। जहाँ-जहाँ "दस्थ जाव-पाथपुंछ" ऐसा पाठ है वे सब स्थल निर्देश नीचे अंकित किये गये हैं, उन्हें उन स्थानों से समझ लेवें ।
उ. २. सु. २०५
१ पायेति तं पापं
जो कि लब-वेषित (पात्र दान का फल बताकर दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
उसे उपातिकासिक परिन (प्रायश्वित) आता
दाड पायपुंछन विहि-जिसेहो
२६९. तो कप निग्गंधीगं वारूदण्डयं पायपुछणं धारेलए वा पहिरिएका
आ. सु. १, म. ८. उ. १, सु. १६९ कप्प. उ. १, सु. ४०-४१ नि. न. १५. सू. ८७-६८ नि. उ. १६, सु. २६ ]
सूत्र २६८-२६९
आ. सु. १ . उ. २, सु. २०४ कप्प उ. १, सु. ४२-४३ नि. ए. १५ तु. १५३ - १५४
गांव पोंछने का अंद पायछण रजोहरण से भिन्न उपकरण है - यह आगमों के निम्नांकित कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट है। दश भ. ४ में पायछण और रजोहरण को भिन्न-भिन्न उपकरण कहा गया है। प्रश्न. भु. २, अ. ५ में भी दोनों उपकरण भिन्न-भिन्न कहे हैं।
देवरिया में उपकरणों के अन्तर्गत
काष्ठदण्ड वाले पात्रोंछत का विधि-निषेध-
२६. निधी (साध्वियों ) को दारूदण्ड (काष्ठ डण्डी वाला) पादोच्छन रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है ।
-नि. उ. ५, सु. १५-१८
और रजोहरण को थिये। न हो तो दूसरे
करके
आ. सु. २. १० में ऐसा विधान है कि "स्वयं के समीप पाय अत्यावश्यक कार्य से नित्रत होये ।" इस विधान से पायपुंछष का रजोहरण से भिन्न होना स्वयं सिद्ध है। क्योंकि रोहण आवश्यक औषिक उपकरण है अतः वह सबके पास होता ही है ।
के लिए डयुक्त पायण" रखना निषिद्ध है और साधु के लिए विहित है। इससे भी
बप. ५ में इनकी मित्रता सिद्ध होती है। निशीथ उ. २ में काष्ठ दण्डयुक्त "पायपुंजण " रखने पर प्रायश्चित्त विधान हैं ।
निशीथ उ. ५ में काष्ठ दण्डयुक्त "पायपुंण" एक निर्धारित अवधि के लिए प्रातिहारिक पीछा लौटाने की शर्त पर लाने का विधान है और निर्धारित अवधि में न लौटाने पर प्रायश्चित्त का विधान है।
रजोहरण कभी पीछा लौटाने की शर्त पर नहीं लाया जाता, न ही उसके लिए निर्धारित अवधि होती है, किन्तु रजो हरण तो काष्ठ दण्डयुक्त ही बनाया और सदा रखा जाता है और उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है।
इस प्रकार "पाप" की रजोहरण से मित्रता सिद्ध है। ऐसे अन्य को अनेक आगम विधान हैं जिनसे दोनों की
भिता सिद्ध होती है।
चूणियों ओर टीकाओं के रचना काल में कहीं-कहीं दोनों की एकता मान लेने पर भ्रान्ति हुई है अतः इन उद्धरणों से प्रान्ति का निराकरण कर लेना चाहिए ।