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________________ २८२] घरगानुयोग भारम्भ-सारम्भ-समारम्भ के सात-सात प्रकार सूत्र ४०१-४०४ संजमेणं णिचं परिहण परफोडण-पमज्नणयाए अहो ३ धारण-ग्रहण करना चाहिए। (शोभावृद्धि आदि किसी अन्य राओ य अप्पमण होइ सव्यं णिश्खियध्वं च गिम्हियवं प्रयोजन से नहीं)। साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, च मायणगोवहिउषगरणं । प्रस्फोदन- रमानि करी में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन-पात्र, भाण्ड--मिट्टी के बरतन, उपधि-बस्त्र आदि तथा अन्य उपकरणों को यतना पूर्वक रखे या उठाए। एवं आयाणभंडणिक्खेवणासमिहजोगेण भाविओ भवई अन्तः इस प्रकार आगन निक्षेपण समिति के योग से भावित रख्या असबलसकिलिटि णिय्यणचरितमाषणाए अहिंसए अन्तरात्मा-अन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा संजए सुसाहू। मन्बण्ड (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्ता अहिंसक संयम–पण्ह. सु. २, अ. १, सु. ७-११ शील सुसाधु होता है । उवसंहारो उपसंहार४०२. एषमिण संवरस्स गरं सम्म संवरिय होइ मुप्पणिहियं । ४०२. इस प्रकार मन, वचन और याय से सुरक्षित इन पांच इमेहि पंचहि नि कारणेहि मग-यण-काय परिरक्सिएहि भावना रूप उपायों से यह अहिंसा-संवरद्वार पालित-सुप्रणिहित गि आमरणतं च एस भोगी मञ्चो धिइमया मइमया होता है। अतएव धैर्यशाली और मतिमान पुरुष को सदा जीवन अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिक्सावी असंकिसिटी पुडो पर्यन्त सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए। यह अनासम्वजिणमणुग्णाओ। स्रव है, अर्थात् नवीन कर्मों के आसन को रोकने वाला है, दीनता से रहित है, कलुष-मलीनता से रहित और अच्छित-अनास्रवरूप है, अपरिखावी-कर्मरूपी जल के आगमन को अवरुद्ध करते वाला है, मानसिक संक्लेश से रहित है, गुर है और सभी तीर्थ करों द्वारा अनुज्ञात-अभिमत है। एवं पडम संबरदार कासियं पालि सोहियं तीरिय किट्टियं पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संदरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित आराहियं आगाए अणुपालियं भवइ । होता है, शोधित होता है, तीणं-पूर्ण रूप से पालित होता है, एवं णायभुगिया माझ्या पणवियं पसिद्ध सि सिसवर- कौतित, आराधित और (जिनेन्द्र भगवान की) आज्ञा के अनुसार सासणमिणं आपविय सुवेसियं पसस्य । पालित होता है। ऐसा भगवान् ज्ञात मुनि - महावीर ने प्रज्ञा-- पण्ह. सु. २, अ. १, सु. १२-१४ पित किया है एवं प्ररूपित किया है। यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है। सत्त-सत्तविहे आरम्भे, सारम्भे, समारम्मे आरम्भ-सारम्भ-समारम्भ के सात-सात प्रकार४७३, सप्तविहे भारम्भे पण्णसे, ते महा ४०३. आरम्भ सात प्रकार का कहा गया है । जैसे१. पुरवीताइय भारम्भे, २. माउकाइय आरम्भे, (१) पृथ्वीकायिक-आरम्भ, (२) अप्कायिक-आरम्भ, ३. ते उकाइय आरम्भे, ४. वारकाइय भारम्भे, (३) तेजस्कायिक-आरम्भ, (४) वायुकायिक-आरम्म, ५. वणस्सइकाइय आरम्ये, ६. सकाइय आरम्भे, (५) वनस्पतिकायिक-आरम्भ (६) वसकायिक आरम्भ, ७. अजीवकरइय आरम्भे । (७) अजीवकाम-आरम्भ । सत्तविहे सारम्मे पण्णते, ते महा-पुतविकाइयसारम्भे जाव- सारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे . अजीयकाइयसारम्भ। पृथ्वीकायिक-सारम्भ-न्याय-अजीवकाय सारम्भ । सत्तविहे समारम्झे पण्णते, तं बहा-पुतविकाायसमारम्भे समारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे जाव-अजीवकाइयसमारम्भ। -ठाणं. अ. ७, सु. ५७१ पृथ्वीकायिक-समारम्भ-यात-अजीवकाय समारम्भ । सत्स, सत्तविहे अणारंमे, असारंभे, असमारंभे ये अनारंभ असारंभ और असमारंभ के सात-सात प्रकार४०४. सत्तविहे अणारम्भे पण्णते, तनहा .. ४०१. अनारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे१. पुषिकाइयअणारंभ, २. आउकाइपअणारम्भे, (१) पृथ्वीकायिक अनारम्भ, (२) अप्कायिक अनारम्भ,
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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