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धरणामुयोग
कपाट रहित द्वार वाले उपाश्रय का विधि-निषेध
सूत्र १०४-२०५
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कप्पइ निम्पयाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उपस्सए ऐसे उपाश्रय में निग्रंन्यों और निम्रन्थियों को हेमन्त तथा हेमंत-गिम्हासु वत्था।
ग्रीष्म ऋतु में बसना कल्पता है। से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु था, पलालपुजेसु वा, जो उपाश्रय तृण या तृणपुंज या पराल या परालज से बना अप्पडेभु-जाव-सबकडासंताणएमु अहेरपणिमुक्कमउडेसु। हो और वह अंडे-यावत--मकड़ी के जालों से रहित हो किन्तु नो कप्पह निरगंयाण चा निग्गीण वा तहप्पगारे उवस्सए उपाश्रय के छत की ऊँचाई खड़े व्यक्ति के सिर में ऊपर उठे सीधे वातावासं वत्थए।
दोनों हाध जतनी ऊँचाई से नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में
निर्ग्रन्थों और निशियों को वर्षावास बसला नहीं कल्पता है। से तणेसु वा-जाव-मक्कडा संताणएमु उप्पि रयणिमुक्फमउ- जो उपाश्रय नृण से बना हो यावत् -- मवड़े के जालों से रेसु। .
रहित हो और साथ ही उपाश्रय के छत की नाई खड़े व्यक्ति
के सिर से ऊपर उठे सीधे दोनों हाथ जितनी ऊँचाई से अधिक कप्पड निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्साए हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्गन्ध और नियन्थियों को वर्षावास में
वासावासं बस्थए। -कप. उ. ४, सु. ३५-३८ वसना कल्पता है । अयंगुयदुवारिय उवस्सयस्स विहि-णिसेहो
कपाट रहित द्वार वाले उपाधय का विधि-निषेध ।। १०४. नो कप्पद निग्गयोणं, अवंगुयदुवारिए उवस्सए बत्थए। १०४. निर्गन्थियों को खुले द्वार वाले उपाश्रय में बसना नहीं
कल्पता है। एग पत्यारं अंतो किच्चा, एग पत्यार वाहि फिच्चा, किन्तु परिस्थितिवश ठहरना पड़े तो एक पर्दा द्वार के अन्दर ओहाडिय चिलिमिलियागंसि एवं गं कापड पत्थए। करके और एक पर्दा द्वार के बाहर करके इस प्रकार चिलि
मिलिका बाँध बर उसमें बराना कल्पता है । ओमहिज्जुत्त अवस्सयस्स विहि-णिसेहो---
धान्य युक्त उपाश्रय के विवि-निषेध१०५. उवस्सपस्स अंतोखगडाए सालीणि वा, वीहीणि वा, १०५. उपायय के भीतर शालि, व्रीहि. मूंग, उडद, तिल, कुलत्थ.
मुम्माणि श्रा, मासापि वा, तिलाणि वा कुलत्थाणि वा, गेहूं, जो या उनार अव्यवस्थित पड़े हों या अनेक जगह गड़े हों गोधमाणि बा, जवाणि या, जवजवाणि वा, उक्वित्ताणिया, म बिखरे हुए हो. या विशेष बिखरे हुए हों तो, विविखसाणि वा, विहकिष्णाणि वा, विपदण्णाणि वा।। नो कप्पद निग्गंधाण वा, निग्गंधीण दा, अहालंदमवि निग्रंथों और नियन्थियों को वहाँ "यथालन्दकाल" तक भी यत्पए।
बसना नहीं कल्पता है। अह पुण एवं जाणेज्जा - नो उक्वित्ताई, नो विक्वित्ताई, यदि निम्रन्थ और निग्रन्थियां यह जान जाये कि (उपाश्रय . नो थिइ किष्णाई, नो विपकिष्णाई।
वे. परिक्षेप या आँगन में शालि-यावत्-जयजय) इक्षिप्त,
विक्षिप्त, यतिकीर्ण और त्रिप्रकीर्ण नहीं है, रासिकहाणि वा, पुंजकडाणि वा, भित्तिकवाणि वा, कुलि- किन्तु राशिकृत, पुँजकृत, भित्कृित, कृतियाकृत तथा याकडाणि वा, संघियाणि वा, मुद्दियाणि वा. पिहियाणि वा। सांछित, मुद्रित या पिहित है तो, कप्पड़ निधाण वा निग्गयीण वा, हेमन्तु-गिम्हासु उन्हें हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु मे वहाँ बनना कल्पता है। वत्थए। अह पुण एवं जाणेज्जा नो रासिफडाई, नो पुंजकडाई, यदि नियंध और नियन्थियां यह जाने कि (उपाश्रय के नो भित्तिकमाई नो कुलियाकडाई।
परिक्षेग वा आँगन में शालि-यावत्-जवजव) राजि कृत,
पुंजकृत, भित्तिकृत या कुलिकाकृत नहीं है, कोट्टाउत्ताणि वा, पल्लाइत्ताणि बंग, संचाउत्ताणि वा किन्तु कोसे में या पल्य में भरे हुए हैं, मच पर या माले पर मालाउत्साणिवा, ओलित्ताणि वा, विलिनाणि वा, पिहियाणि सुरक्षित हैं, मिट्टी या गोबर से लिपे हुए हैं, उके हुए, चिन्ह लिये या, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा ।
हुए या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वहाँ वर्षावास में बसना कापड निग्गयाम श्रा, निग्गयीण वा वासायास बत्थए। करपता है।
- कप्प..२, सु. १-३