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________________ सूत्र ७४३-७४५ एतया गुणसमितरस तो कापसासमा एतिया पाणा उद्दाति इहयोग | प्रामुक विहार स्वरूप प्ररूपण णं आउट्टिकथं फम्मं तं परिणाय विवेगमेति । एवं से अध्यमावेण विवेगं किट्टति वेदवी । आ. सु. १. अ. ५, उ. ४. सु. १६२-१६३ फासूम बिहार सरूद - देव ७४४. प० - किसे ते ! फासूयविहारं ? उ०- सोचिला गं मारामेसु उपभागं वासु इवी-य-पंडा-विवक्तिमा सही फामु एस फिज्लं पीढ-फल- सेज्जा-संथागं उवसंपज्जिहानं विहरामि से सं फासूयविहार ।" वि.न. १०. गु. २१ भाविययणो अणगाररस फिरिया विहाण७४५. प. अणगारस्स णं भंते ! भावियत्यको पुरओ बुहओ जुग मायाए पहाए हाए रोयं रीयमाणस्स पायरस आहे थापाले वाला था. पर यावज्जेजना, तस्स णं भंते ! कि हरियाहिया फिरिया कज, संपराइया किरिया कज्जद ? - उ०- गोयमा ! अणगारस्स णं भाविप्पणी- जाव-हरियावहिया किरिया कज्जइ नो संपराइया किरिया कज्जइ । प० - से केमद्वेणं मंते । एवं युच्चइ अणगारस्त णं भाविपण जाव ईरियायही किरिया कज्जह जो संपरा या किरिया कज्जइ ? उ०- गोवा ! जर मति तत कोह-माय-माया-लोभावो इरियाबहियारयति १ (क) पाया मु. १, अ. ५. सु. ४६, (ग) धम्म. भा. २ ख. ४. सु. ३०३, पृ. २७७ । 1 चारित्रासार [ ४७ किसी समय प्रवृत्ति करते हुए अप्रमादी मृति के शरीर का संस्पर्श पाकर कुछ प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणि ग्लानि गाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, तो उसके इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है। आट्टि से (आगमोक्त विधिरहित अविधिपूर्वक ) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्म-बन्ध होता है, उसको परिज्ञा से जानकर क्षय करे। इस प्रकार उनका (प्रमादत्रण किए हुए साम्परायिक कर्म बन्ध का त्रिलय (क्षय) अप्रमाद से (यथोचित प्रायश्चित्त सं) होता है, ऐसा आगमता पर कहते हैं। प्रासुक विहार स्वरूप प्ररूपण -- ७४४. प्र०- हे भगवन् ! आपके प्रामुक विहार कौन सा है ? हे सोमिन आराम ( बगीचा) देवकुल राजा या (प्याऊ) आदिनों मेस्त्री, पशु पण्य (ममक) रहित बसतियों में प्रासुक एवणीय पीठ, पलक, शय्या संस्तारक आदि प्राप्त करके में विचरता है। यह मेरे प्रासुक बिहार है। भावित आत्मा अणगार की क्रिया का प्ररूपण ७८५. प्र० - हे भगवन् ! सामने दोनों ओर युगमात्र ( धूसर प्रमाण ) भूमि को देकर गमन करते हुए भावितात्मा अगार कं गांव के नीने का बच्चा बन का बना कु (बीटी जैसा सूक्ष्म जन्तु) आकर मर जाय तो हे भगवन् ! उस अणगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है या साभ्यरायिकी क्रिया लगती है ? उ०- हे गौतम! भावितात्मा अपगार को यावत् ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । प्र० - हे भगवान् ! किस कारण इस प्रकार कहा जाता है कि भावितात्मा अणगार को यावत् ऐर्यापथिकी क्रिया नती हैं. साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? (ख) धम्म. भा. १, प्र. २, सु. १८७, पृ. ८ ३० गौतम ! ( वास्तव में ) जिसके कोध, मान, माया और लोभ व्यवसि (अनुदन प्राप्त अथवा सर्वना भी हो गये है. छम (११-१२-१२ गुणस्थानवर्ती अगगार) को ही या लगती है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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