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१०] चरणानुयोग
वंदना कल
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१६. प० बंदणणं भन्ते । जीये कि जगयइ ?
उ० बंदणणं नीयागोयं कम्म खवेह | उच्चागोयं निबन्ध | सोहणं व गं अप्पवियं आणाफलं निव्य बाहिणभावं च णं जणय । -उत्स. अ. २६, सु. १२
चवीसपल सुत -
१७. प० चवीसत्थए भन्ते ! जीवे कि जणय ?
उ० सत्यमोह
भव-पुई मंगल फलमुत्त१८. प० पवधुमंगलेणं भंते ! जीवे कि जनयइ ?
चवना फल सूत्र
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- उत्त. अ. २६, सु. ११
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उ० धवथुमंगले माणसश्चरितोहि लाभं जणयद्र । राजसरि बोलिने अन्तकिरिय कप्पविमाणोषसिगं आराहणं आहे ।
-उत्त. अ. २९, सु. १६
सूत्र १६-१८
वन्दना फल सूत्र -
?
६. प्र० - भन्ते ! वन्दना से जीव क्या प्राप्त करता है उ०- बन्दना से वह नीच कुल में उत्पन्न करने वाले कर्मों को क्षीण करता है। ऊँचे-कुन में उत्पन्न करने वाले कर्म का अर्जन करता है। जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें वैसे.. अवाधित सौभाग्य को प्राप्त होता है तथा दाक्षिण्यभाव को प्राप्त होता है ।
चतुर्विशतिस्तव फल सूत्र
११. प्र०—विशतिस्तव (नौबीस तोर्थकरों की स्मृति करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
विशतिस्तव से सम्यक्त्व की विशुद्धि को प्राप्त
70 करता है ।
स्तवस्तुतिमंगल फल सूत्र
११. प्र० भन्ते ! स्तव और स्तुति रूप मंगल से जीव क्या प्राप्त करता है ?
उ०- स्तव और स्तुति रूप मंगल से वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की बोधि का लाभ करता है । ज्ञान, दर्शन और afta के बोधि-लाभ से सम्पन्न व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति या वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता है।
(क्रमशःपृष्ठ का
३. प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, फिर शास्त्र के लिए यह मंगल क्यों किया गया ?
इनका क्रमशः समाधान यों है- प्राचीनकाल में पाास्त्र को कण्ठस्थ करने की परम्परा थी, लिपिबद्ध करने की नहीं । ऐसी
स्थिति में लिपि को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसका आशय वृत्तिकार स्पष्ट करते हैं कि यह नमस्कार प्राचीनकालीन लोगों के लिए नहीं आधुनिक लोगों के लिए है। इसमे यह भी सिद्ध है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, यह नमस्कार शास्त्र को लिपिबद्ध करने वाले किसी परम्परानुगामी द्वारा किया गया है | अक्षरस्थापनारूप लिपि अपने आप में स्वतः नमस्करणीय नहीं होती, ऐसा होता तो लाटी, यवनी, तुर्की, 'राक्षसी आदि प्रत्येक लिपि नमन योग्य होती; परन्तु यहाँ ब्राह्मी लिपि को नमन योग्य बताई है, उसका कारण यह है कि शास्त्र ब्राह्मी लिपि में लिपिबद्ध हो जाने के कारण वह लिपि आधुनिकजनों के लिए श्रुतज्ञान रूप भावमंगल को प्राप्त करने में अस्यन्तु उगकारी है। द्रव्यभूत भावभूत का कारण होने से जाक्षर रूप (ब्राह्मी प्रयत को भी मंगलरूप माना है। वस्तुतः यहाँ नमन योग्य भावश्रुत ही है, वही पूज्य है। अथवा शब्दनय की दृष्टि से शब्द और उसका कर्ता एक हो जाता है । इस अभेद विवक्षा से ब्राह्मी लिपि को नमस्कार भगवान ऋषभदेव ( ब्राह्मीलिपि के आविष्कर्ता) को नमस्कार करना है । अत: मात्र लिपि को नमस्कार करने का अर्थ अक्षरविन्यास को नमस्कार करना लिया जायेगा तो अतिव्याप्ति दोष होगा।