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________________ पुत्र ३४०-३४१ असकाय का स्वरूप चारित्राचार २४१ धर्म पिसाहार, ५. यह मनुष्य भी आहार करता है, एवं वि बाहारग; -यह वनस्पति भी आहार करती है, इमं पि अणितियं, ६. यह मनुष्य-शरीर भी अनित्य है, एवं पि अणितिय -यह वनस्पति शरीर भी अनित्य है, इमं पि असासयं, ७. यह मनुष्य-शरीर भी अशाश्वत है, एवं मि असातयः यह वनस्पति शारीर भी अशाश्वत है, इमं पिचयोबचाइयं, ६. यह मामी की आहार से उपचित होता है, आहार के अभाव में अपचित-क्षीण होता है, एवं पियोबचाइय; -यह वनस्पति शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है। इस पि पिपरिणामधम्मयं, ६. यह मनुष्य-पारीर भी अनेक प्रकार की बवस्थाओं को प्राप्त होता है, एवं पि विपरिणामधम्मयं । -यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं -आ. सु. १, अ. १. उ. ५, सु. ४५ को प्राप्त होता है। तसकाय सरूवं-- असकाय का स्वरूप ३४१. से बेमि ३४१ मैं कहता हूँसंतिमे तसा पाणा, तं जहा ये सब स प्राणी हैं, जैसेअंच्या पोतया जराउया रसया संसेइमा समुच्छिमा उभिया अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्भूछिम, उद्उववातिया।। भिज्ज और औपपातिक । एस संसारे ति पश्चति । मंदस्स अवियाणओ। ___ यह (त्रस जीवों का समन्वित क्षेत्र) संसार कहा जाता है। मन्द तथा अज्ञानी जीवों को यह संसार होता है। गिमाइत्ता पबिसेहिता पत्तेयं परिणिब्याणं । मैं चिन्तन कर, सम्यक प्रकार से देखकर कहता हूँ-प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण (शान्ति और सुख) चाहता हूँ। सवेसि पाणाणं सर्वसि भूताणं सवेसि जीवाणं सध्यसि सब प्राणियों; सब भूतों, सब जीवों और सब सत्वों को सतागं' । अस्सातं अपरिणिवागं महामयं सुक्खं हि बेमि । असाता (वेदना) और अपरिनिर्वाण (अशान्ति) ये महाभयंकर और दुःखदायी है। मैं ऐसा कहता हूँ। उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से बस जीवों के आठ भेद इस प्रकार किये गये हैं.... १.अंडज---अण्डों से उत्पन्न होने वाले-कोयस, कबूतर, मयूर, हंस आदि। २. पोतज-पोत अर्थात् चर्ममय थैली । पोत से उत्पन्न होने वाले-जैसे हाथी, बल्गुली आदि । ३. जरायुज-जरायु का अर्थ है गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली जो जन्म के समय शिशु को आवृत किये रहती है। इसे "जेर" भी कहते हैं । जरायु के साथ उत्पन्न होने वाले जैसे- मनुष्य, गाय, भैस आदि । ४. रसज-छाछ, दही आदि रस विकृत होने पर इनमें जो कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं वे "रसज" कहे जाते हैं । ५. संस्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाले, जैसे-जू, लीख आदि । ६. सम्मूच्छिम-- बाह्य वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले, जैसे-भ्रमर, चींटी, मच्छर, मक्सी आदि। ७. उद्भिज्ज-भूमि को फोड़कर निकलने वाले, जैसे-टीड, पतंगे आदि। . ८. औपपातिक--"जपपात" का शाब्दिक अर्थ है सहसा घटने वाली घटना। आपम की दृष्टि से देवता गया में, नारक कुम्भी ___ में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युबा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक कहलाते हैं। २ (क) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राण, भूत, जीव और सत्व भब्द सामान्यतः जीव के ही पाचक हैं । शब्दनय (समभिरूढ नय) की अपेक्षा से आगम में इसके अलग-अलग अथों का प्रयुक्तीकरण इस प्रकार है (शेष टिप्पण' अगले पृष्ठ पर)
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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