SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२] घरमानुयोग सकायके भेद-प्रभेर मूत्र ३४१-३४३ तसंति पाणा पवितो विसासुप। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में सब ओर से भयभीत अस्त रहते हैं। तत्थ तस्थ पुढो पास आतुरा परिसावेति । तू देख, विषय-सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते है। संति पाणा पुढो सिया। त्रसकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों के आश्रित रहते हैं। -आ. शु.१,अ. १. उ. ६, गु, ४६ तसकायस्स भेयष्यभेया सकाय के भेद-प्रभेद३४२. से जे पुष इमे अगगे बहवे तसा पाणा संग्रहा ३४२. और ये जो अनेक अस प्राणी हैं, जैसेअंडया पोयया जराच्या सवा संसदमा सम्मुछमा उकिमया अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मुर्छनज, स्ववादया। एभिज, औपपातिक वे छ: जीव-निकाय में आते हैं। असि केसिनिपाणागं अमित पडिमकतं संकुचियं पसारियं जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित इयं मंतं तसियं पलाइयं आगइ-गद्दविनाया होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-मे क्रियाएँ हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता है ये त्रस हैं। नेय कोपयंगा, जाय कुंपियौलिया, सब्वे इंख्यिा, सम्वे जो कीट, पतंय, कुंथु, पिपीलिका सब दो इन्द्रिम वाले जीव, लेघिया, सम्वे परिबिया, सच्वे पंचिदिया, सम्वे तिरिक्व- सब तीन इन्द्रिय वाले जीव, सब चार इन्द्रिय वाले जीव, सब जोगिया, सम्ये नैराया, सम्वे मगुया, सम्वे देवा, सम्वे पाणा पनि इन्द्रिय वाले जीव सब हिर्यक-योनिक, सब नरयिक, सब परमाहम्मिया मनुष्य, सब देव और सब प्राणी सुख के इच्छुक हैं' एसो खलु भट्ठो जीवनिकाओ तसकाओ सि पश्चई। यह छट्ठा जीव-निकाय सकाय कहलाता है। -दस.अ.४, सु.६ तसकाय अणारम्भ पाण्णा त्रसकाय के अनारम्भ की प्रतिज्ञा३१. से मिळू वा भिक्खणी वा संजय-विरय-परिहय-परमपखाय- ३४३. संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु अथया • पावकम्मे, भिक्षुणीदिया वा रात्री वा एगो वा परिसागमो का तुसे वा जागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते या माणे या जागतेसे कोरबा पयंग वा कंधु वा पिवीलियं वा हत्यसि या कीट, पतंग, कुंथु या पिपीलिका को हाथ, पैर, बाहु, उरु, पापंसि वा बाहसि वा उसि वा उदरंसि वा सीसंसि या उदर, सिर, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादोकछनक, रजोहरण, गोच्छग, - (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) प्राण--दस प्रकार के प्राणयुक्त होने से। भूत-तीनों काल में रहने के कारण । जीव-आयुष्य कर्म के कारण । सत्व-विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आस्मद्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आने के कारण। (ख) शीलांकाचार्य ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है प्राण-द्वीन्द्रिय, कौन्द्विय, पतुरिन्द्रिय जीव । भूत-वनस्पतिकायिक जीव। .. जीव-पांच इन्द्रियवाले जीव, देव, मनुष्य, नारक और तियं च । ..: मध-पृथ्वी अप्, अग्नि और वायुकाय के जीव ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy