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________________ २४० चरणानुयोग इत्थं गढिए सोए, जमिणं विवहिं सत्येहि वनस्पतिकम्मसारमेणं वजस्तमश्वं समारंभमा पाणे विहिंसति । फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त होता है वह नाना प्रकार के असों से वनस्पतिकाय के समारम्भ में न होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह न केवल वनस्पतिकायिक -आ. सु. १, अ. १ . ५ सु. ४२-४४ जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की श्री हिंसा करता है। एरच सत्यं समारंभमाणस्स इच्येते आरम्भा अपरिष्यतर भवंति । ree सत्यं असमारम्भमाणस्स इच्छेसे आरम्भा परिणाया भवंति । वनपति शरीर एवं मनुष्य शरीर की समानता तं परिणाम मेहावी व सर्व वस वह वगरसतिस समार गतिरात्यं सारं समजा । जस्सेले वणस्स तिसरयसमारम्भा परिणाया मसिह मुणो परिणायकमेति वेनि । - बार सु. १, अ. १, उ, ५, सु. ४६-४८ हरितानि भूतानि नियि आहारवेहा पुढो शिलाई जे छिति आतसुहं पडुच्चा, पागल पागे बहुतवासी ।। जाति च बुद्धिं च [विणासयन्ते, बीमावि अस्संजय आपदं अहातु से सोए अणजम्मे बोपानि जे हिसति आपसाते ॥ एवं प इमं वित दणस्स व मणुयजीवणरस व तुलतं-३४०. से बेमि इमं वि जातिधम्मयं एवं वि जातिम इम्पियं एवं पिचिसमंतयं इमं निमिती एवं मिलती; म १११-३४० जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ करता है, वह उन आरम्भों मारम्भजन्य कटुफलों से अनजान रहता है। (जानता हुआ भी अनजान है ।) जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरम्भ-परिज्ञान है । यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारम्भ न करे, न दूसरों से समारम्भ करवाए और न समारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे । जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारम्भ परिज्ञात होते हैं, दही परिकर्मा (हिना त्यागी) मुनि होता है। जो असंयमी (गृहस्थ या प्रव्रजित) पुरुष अपने सुख के लिए बीजादि ( विभिन्न प्रकार के बीज वाले अन एवं फलादि ) का याम करता है वह (बीज के द्वारा) जाति (अंकुर की उत्पत्ति) मौर (फल के रूप में वृद्धि का विनाश करता है। (वास्तव में) — सू. सु. १, अ. ७, गा. ५-६ वह व्यक्ति ( हिंसा के उक्त पाप द्वारा) अपनी ही बात्मा को दण्डित करता है संसार में तीर्थकरों या प्रत्यक्षदर्शियों ने उसे अनाधर्मी (अनाड़ी या अधक) कहा है। हरी दूब अंकुर आदि भी (वनस्पतिकायिक) जीव हैं, वे भी जीव आकार धारण करते हैं। वे (मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फल-फूल, आदि अवयवों के रूप में पृथक्पृथ रहते हैं जो व्यक्ति अपने सुख की अपेक्षा से तथा अपने आहार (या माघारआवास एवं शरीर-पोषण के लिए इनका छेदन-भेदन करता है, वह घृष्ट पुरुष बहुत से प्राणियों का विनाश करता है। वनस्पति शरीर एवं मनुष्य शरोर की समानता३४०. मैं कहता है-. १. यह मनुष्य भी जन्म लेता है। - यह वनस्पति भी जन्म लेती है, २. यह मनुष्य भी बढता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है, ३. यह मनुष्य भी चेतनायुक्त है, -यह वनस्पति भी चेतनायुक्त है, ४. यह मनुष्य शरीर छिन होने पर म्लान हो जाता है, - यह वनस्पति भी छिन होने पर म्लान होती है,
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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