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________________ पुत्र ३८-३३६ वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का निषेध चारित्राचार [२३९ आनं गच्छत वा चिट्ठन्तं वा निसीयन्तं यश तुपट्टन्तं वा न . चलने खड़ा रहने, बैठने या सोने वाले का अनुमोदन भी समजालेमा, न करे, भावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं बायाए कारण न यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से—मन से, करेमिन कारवेमि करतं पि अम्नं समणुजाणामि । वचन से, काया से—करूगा, म कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। त भंते ! परिकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं वोसि- भन्ते ! मैं अतीत के वनस्पति-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आत्मा - दस. अ. ४, सु. २२ का व्युत्मर्ग करता हूँ। सपषखं न छिवेज्जा, फलं मूलं व कस्सई। मुनि तृण, वृक्ष तथा किसी भी (वृक्ष आदि के) फल या आमगं विविहं बोयं, मणसा वि न पत्थए । मूत का छेदन न करे और विविध प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे। महणेसु न मिया, और रिला , __ मुनि वन-निकुन्ज के बीच में बीज पर, हरित पर, अनन्तउदगम्मि तहा निच्च, उत्तिगपणगेसु था। कायिक-वनस्पति सर्पच्छर और काई पर खड़ा न रहे। - दस. अ. ८, गा. १०-११ बसविहा सणवणस्सइकाइया पलत्ता, तं जहा . तृणवनस्पतिकायिक जीव दश प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. मूसे, २. कंदे, ३. खंधे, ४. तया, ५. साते, (१) मूल, (२) कन्द, (३) स्कन्ध, (४) वक्, (५) शाखा, ६. पवाले, ७. पत्ते, ८. पुष्के, ६. फले, १०. बोये । (६) प्रवाल, (७) पत्र, (८) पुष्प, (९) फल, (१०) बीज। -ठाणं, अ.१०, सु. ७७३ वणस्सइकाइयाणं हिंसा निसेहो वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३६. लज्जमाणा पुढो पास । 'अषगारा मो' ति एगे पक्यमाणा, ३३६. तू देख, ज्ञानी हिंसा से लज्जित-विरत रहते हैं। "हम जमिणं बिरूवधेहि सस्थेहि वसतकम्मसमारम्भेग वण- गृहत्यागी हैं" यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के इसतिसत्य समारम्भमाणे अण्णे अगश्व पाने विहिंसति । शास्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारम्भ करते हैं। वन रूपतिकाव की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। तत्य खलु भगवता परिष्णा पवेदिता--इमस्स चेय जोबि- इस विषय में भगवान ने परिज्ञा-विवेक का उपदेश किया यस्स परिवंदण-माषण-पूयणाए, जाती-मरग-मोयणाए, सुक्ख- है-इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए जन्म, परिघातहेत. मरण और मुक्ति के लिए, दुख का प्रतीकार करने के लिए। से सयमेव वपस्सतिसस्थ समारंभति, अण्कोहि वा वणस्सति- वह (तथाकथित साधु) स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की सत्थं समारंमाति अपणे वा बणस्सलिसत्थं समारम्भमागे हिंसा करता है, दुसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का समणुजापति। अनुमोदन भी करता है। तं से अहियाए तं से अबोलिए। यह (हिसा करला, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है, यह उराको अवोधि के लिए होता है। से तं संबुमामागे आयाणीयं समुट्टाए। यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। सोचा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए हमेगेसि णायं भवति भगवान से या त्यागी अणगारों के समीप सुनकर उसे इस -एस तु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु बात का ज्ञान हो जाता है--(हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह पिएए। मृत्यु है, यह नरक है। १ ठाणं. अ.८, सु. ६१४ ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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