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________________ १३२१ चरणानुय सम्पर्शी श्रमण का परीवह्- जय (१) पीडित होगा से अनगार धर्म में प्रति सेवा अयारामो अनारियं पि परिसकिरिन मे निति नाति, नविनत्यक अभेदसमापन्न अकनुषसमापन्न होकर निर्ययप्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है. रुचि करता है वह परीवहों से जूझजून कर उन्हें अभिभूत कर देता है। उसे पर अभिभूत नहीं कर पाते। समावणे णो कलुससमाचणे जिरगं णं पावयणं सद्दहति पत्तिपति शेएति से परिस्सहे अभिजु जिय अभिजु जिय अभिमत को परिमा भिजिय-अभिजय अभिभवति । २. सेणं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पश्वहुए समा पंहि महत्व हि निस्सं किए जात्र णो कलुससम | वण्णे पंच महम्यताई सहति जाव णो तं परिस्सहा अभिजु' जियअभिजु जिय अभिभवति । हि २. मुण्डे भक्त अगाराओ अगनारियं जीवणिकाएहि निस्संकिते- जाव णो कसुससमावणे छ जोणिकाए सद्दहति जाव णो त परिस्सहा अभिजु जिय नियमित २. से गं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पभ्वद्दए पंचाहि महत्वपूह संकिले जाब- कलुससमावण्णे पंच महत्वताई योगी से परि अभिय-अभिषु यि सहति जाव अभिभवति । -ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २२३ प्रमाए असम्म सरिस सम्मणरस परीसह पराजओ२२७. तभी ठाना अभ्यवसितास अहिताद अमुभा अणिस्साए अणानुगामियत्ताए भवति, तं जहा - १. से मुझे भविता अगाराओ अणगार पर पायवितिच्छितेसह समावणे थं पावपणं गो सद्दहति णो पत्तियति पो रोएति अभिनय अभिजय अभित तं परिस्सहा णी से परिि ३. से णं मुण्डे भत्ता अगाराओ अनगारियं पथ्यइए छह जोका संकते जाव-कलुससभावणे छ जावा जीवणिकाए मोसो से परिय-अभिजिय अभिभवति । सूत्र २२६-२२८ सम्मत रक्कमरस पण्ठुतरा२२८. सुयं मे आउ 1 सेगं भगवया एवमक्वायं इह खलु सम्मतदरक्कमे "नाम अव" सममेव महावीर का मेणं वेदसम्मं हित्ता परियाना रोमदत्ता काल - (२) जो मुण्डित हो अधार से अनवार धर्म में प्रवजित होकर पांच महाव्रतों में निःशंकित यावत् - अकलुषसमापन होकर पांच महाव्रतों में श्रद्धा करता है यावत् वह परीपों से जूझजूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीवह अभिभूत नहीं कर पाते । (३) जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रब्रजित होकर छह जीवनिकायों में निःशंकित यावत्- अकलुषसमापन होकर छह जीवनिकाय में श्रद्धा करता है। यावद वह परीषहों से जूझ जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषद्द जूझ-जूक कर अभिभूत नहीं कर पाते। असम्यग्दर्शी श्रमण का परीषह पराजय -- २२७.) के तीन स्थान अति अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के कारण होते हैं। (२) वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर पांच महाव्रतों में शंकित यावत् कलुषसमापन्न होकर पांच महावतों पर था नहीं करता यावत् उसे परीपहर अभिभूत कर देते हैं, वह परीपट्टों से जू-जू कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता । — (३) वह मुण्डित हो अगार से अनवार धर्म में प्रब्रजित होकर छह जीवनिकायों में प्रतियावत् समापन होकर छह कलुषसमापन्न जीव-निकाय पर अदा नहीं करता यावत् उसे परीषह प्राप्त होकर अभिभूत कर देते हैं. वह पहों से जूझ जूम कर उन्हें ठा. अ. ३, उ. ४, सु. २२३ अभिभूत नही कर पाता । सम्यक् पराक्रम के प्रश्नोत्तर २२८. आयुष्मन् ! मैंने सुना है भगवान् ने इस प्रकार कहा हैइस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में कश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर ने सम्यक्त्व पराक्रम नाम का अध्ययन कहा है, जिस पर भलिभांति (१) वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित प्रवचन में अंकित कांक्षित, विनिकित्सक भेदसमापन और कलुप समापन होकर निर्मन्थ- प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता उसे परोष आकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जून- जूझ कर उन्हें अभि भूत नहीं कर पाता ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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