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सूत्र १००
आसक्तिपूर्वक आधाकर्म आहार करने का फल
चारित्राधार
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आसत्तिपुवकयं आहाकम्माहारस्स फलं-
आसक्तिपूर्वक आध कर्म आहार करने का फलtre, प०--आहाकम्मं गं मंते ! भुजमाणे समणे णिग्गंधे, १. कि १००प्र०-भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उप
बंधति ?, २. कि पकरेति ?, ३. कि चिणाति ?, ४. कि भोग करता हुआ श्रमण निन्थ (१) क्या बांधता है ? (२) क्या उपचिणाति?
करता है ? (३) किसका चय (वृद्धि) करता है और (४)
किसका उपचय करता है? उ०-गोयमा ! आहाकम्म णं मुंजमाणे आग्यवज्जाओ सत्त- उ०-गौतम ! आधाक दोपयुक्त आहारादि का उपभोग कम्मपगडीओ बंधा
करता हुआ श्रमण निर्मन्य आधुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म
प्रकृतियों को बांधता है। आउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिप नो बंधइ ।
आयुकर्म कभी वांधता है, कभी नहीं बांधता है। सिदिलबंधण बक्षाओ धणियबंधणबद्धाओ परेड,
शिथिल वन्धन से बंधः हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन
मे बंधी हुई बना लेता है।' हस्सकालठितियाओ वोहकालठिति याओ पमरेद,
अल्पकाल वाली कर्मप्रकृतियों की स्थिति की दीर्घकाल वाली
स्थिति करता है। मंदाणुभावाओ तिवाणुभाषाओ परेड,
नन्द रस बाली कर्मप्रकृतियों को तीच रस वाली करता है। अध्पपएसम्गाओ बहुपएसम्गाओ पकरेइ
अल्पप्रदेश वाली कर्मप्रकृतियों को बहुत प्रदेषा वाली
करता है। असापावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो चिगाइ, असातावेदनीय कर्म का पुनः पुनः चयन संचय) उपचयन उचिणाह,
(वृद्धि) करता है । अगाइयं च णं अणक्यां दीहम पाउरंत-संसार-कतारं अनादि अनन्त दीर्घकाल पर्यन्त ऋतुगंतिमय संसार रूप अणुपरियट्टह,
अटवी में परिभ्रमण करता है ! प०-से केणठेगं भंते । एवं बुम्बई
प्र०.-भगवन् ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है-- आहाफम्म वणं मुंजमाणे आउयवज्जाओ सस कम्मपग- आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि क उपभोग करता हुआ डोओ बंधक, जाद-अणाइयं च पं अणवयग दोहमा चाउ- श्रमण निन्य आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को रंत संसार कंतारं अणुपरिया ?
काँधता है यावत्-अनादि अनन्त दीपकान पर्यन्त चतुर्गतिमय
संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करता है? उ०-गोयमा! आहाकम्म च भंजमाणे आयाए धम्म 30--गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता अइक्कम,
हुआ श्रम नियन्य अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है। आयाए धम्म अतिकम्ममाणे पुढविकायं णावखति-जाव- अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हुआ (साधक) पृथ्वीतसकायं गावखति,
काय के जीवों की परवाह नहीं करता है-पावत्-सकाय के
जीवों की परवाह नहीं करता है। जेसि पिय मंजीवाणं सरोराई आहारमा हरेइ ते वि जीवे जिन जीवों के शरीरों का वह आहार करता है, उन जीवों गावकखति,
को भी चिन्ता नहीं करता। से तेणटेणं मोयमा ! एवं वुश्चर--
हे गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है''आहाकम्मं च णं भुजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपग- "आघाकर्म दोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ डीओ संधइ-जाव-अणाइयं च णं अणबयग्गं वोहमा नाज- श्रमण निन्थ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को रंतसंसारकतारं अणुपरियष्टइ।'
बांधता है यावत्-अनादि अनन्त दीर्घकात पर्यन्त चतुर्ग/तेमय --वि. स. १, उ, सु. २६ संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करता है।"
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वि. स. ७, उ.८, सु..