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चरणानुयोग
आठ प्रकार के शिक्षाशील
सूत्र ११४-११७
आयरिय अग्गिमिवाहियागी, सुस्तसमाणो परिमागरेमा । जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक आलोहय इंगिपभेव नच्चा, जो छन्दमाराहया स पुज्जो॥ रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक
रहता है, जो आचार्य के आलोकित और इंगित को जानकर
उनके अभिप्राय की आराधना करता है, वह पूज्य है। आयारमट्टा विणयं पजे, सुस्ससमाणो परिगिजस वक्की जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो आचार्य जहोवट्ठ अभिकंखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुन्जो॥ को सुनने की इच्छा रखता हुआ उनके वाक्य को ग्रहण कर उपदस. अ. ६., उ. ३, मा. १-२ देश के अनुकूल आचरण करता है, जो गुरु की आशातना नहीं
करता, वह पूज्य है। अट्ठबिहा सिक्खरसोला
आठ प्रकार के शिक्षाशील११५. अह अहि ठाणेहिं, सिक्खरसीले ति बुच्चई । ११५. आठ स्थानों (हतुओं) से व्यक्ति को शिक्षा-पील कहा अहस्सिरे सया बन्ते, न य मम्ममुवाहरे॥ जाता है । १. जो हास्य न करे, २. जो सदा इन्द्रिय और मन
का दमन करे, ३. जो मर्म-प्रकाशन न करे, नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए।
४. जो चरित्र से हीन न हो, ५. जिसका चरित्र दोषों से अकोहणे सचरए, सिक्खासीले ति बुच्चद।। बालुषित न हो, ६. जो रसों में अति लोलुप न हो. ७. जो क्रोध
उत्त. अ. ११, गा. ४-५ न करे, ८. जो सत्व में रत हो-उसे शिक्षा-शील कहा जाता है। पण्णरसविहा सुविणीया
पन्द्रह प्रकार के सुबिनीत११६. अह पन्नासहि ठाणेहि, सुविणोए ति बुचड़। ११६, पन्द्रह स्थानों (हेतुओं) से सुविनीत कहलाता है। १. जो नीयावती अभयले, अमाई अकुहले ॥ नम्र व्यवहार करता है, २. जो चपल नहीं होता, ३. जो मायावी
नहीं होता, ४. जो कुतुहल नहीं करता, अप्पं चाहि विखपई, पबन्धं च न कुब्बई ।
५. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, ६. जो कोध को मेतिन्जमाणो भयई, सुयं लद्धं न मजई ॥ टिका कर नहीं रखता, ७. जो मित्रभात रखने वाले के प्रति
कृतज्ञ होता है, ८. जो धुन प्राप्त कर मद नहीं करता, नप पावपरिक्षेवी, न य मित्तेसु कुटपई।
६. जो सालना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता, अप्पियस्साधि मिसरस, रहे कस्लाण मासई ।। १०. जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, ११. जो अप्रिय मित्र की
भी एकान्त में प्रशंसा करता है, कलहडमरवजए , बुद्ध अभिजाइए।
१२. जो कलह और हाथा-पाई का वर्जन करता है, १३. जो हिरिमं पडिसंलोणे, सुविषीए ति बुच्चई ॥ कुलीन होता है, १४. जो लज्जावान होता हैं, १५. जो प्रति-उत्त. अ. ११, गा. १०-१३ संलीन (इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला) होता है
वह बुद्धिमान' मुनि विनीत कहलाता है। सेहस्स करणीय कज्जाणि
शिष्य के करणीय कार्य११७. आलवन्ते लबन्ते बा, न निसीएज्ज कयाद वि। ११७. बुद्धिमान शिष्य गुरु के एक बार बुलाने पर या बार-बार चाइमणासगं धीरो, जो जत्तं पडिस्सुणे ॥ बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे, किन्तु वे जो आदेश दें, उसे
-उत्त. अ. १, गा. २१ आमन को छोड़कर यत्न के साथ स्वीकार करे। निसन्ते सियाऽमुहरो, बुद्धाणं अन्तिए सया ।
(णिज्य) आचार्य के समीप सदा प्रशान्त रहे। वा वालता न अदूपत्तागि सिपखेज्जा, निरडाणी उ बज्जए ।। करे । उनके पास अर्य-युत पदों को सीखे और निरर्थक कथाओं
का वर्जन करे। अणुसासिओ न कुप्पज्जा, खंति सेविज्ज पण्डिए ।
(शिष्य) गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, खुइहि सह संसरिंग, हास कोटं च वजए। क्षमा की आराधना करे। क्षुद्र व्यक्तियों के साथ संमगं, हास्य
और क्रीड़ा न करे।