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घरणानुयोग
शामी और अज्ञानी
सूत्र १६६-१७०
पावसे नाममेगे सेयंसे ति सालिसए मन्ना,
कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी है किन्तु अपने आप को
श्रेष्ठ सदृश मानते हैं। पावसे नामोंगे पावसे ति सालिसए मन्नाह ।
कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी हैं और अपने आप को -ठाणं अ. ४, उ. ४, सु. ३४४ पापी सदृश मानते हैं। गाणिणो अपणाणिणो य
झानी और अज्ञानी१६७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा---
१६७. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथादुग्गए नाममेगे दुम्गए,
एक पुरुष पहले भी ज्ञानादि गुण से हीन है और पीछे भी
जानादि गुण से हीन है। दुग्गए नाममेगे मुग्गए,
एक पुरुष पहले ज्ञानादि गुण से हीन है किन्तु पोछे ज्ञानादि
गुण से सम्पन्न होता है। सुग्गए नाममेगे दुग्गए,
एक पुरुप पहले ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है किन्तु पीहे ज्ञानादि
गुण से हीन हो जाता है। सुग्गए नाममेगे सुम्गए।
एक पुरुष पहले भी ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है और पीछे भी
ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है। १६८, चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, संजहा
१६८, चार प्रकार के पुरुष कहे हैं. यथा - तमे नाममेगे तमे,
एक पुरुष पहले अज्ञानी है और पीछे भी अज्ञानी है, जमे नाममेगे जोई,
एक पुरष पहले अशानी है किन्तु पीछे ज्ञानी है, जोई नाममेगे तमे,
एका पुरुष पहले ज्ञानी है किन्तु पीछ अज्ञानी है.. जोई नाममेगे जोई। -ठाणं. अ.४, उ. ३, सु. ३२७ एक पुरुष पहले भी शानी है और पीछे भी जानी है। नाणसणुप्पत्ति-अणुप्पत्ति य--
ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति और अनुत्पनि-. १६६, चत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा
१६६. चार प्रकार के पुरुप कते हैं. यथाकिससरीरस्स नाममेगस्स गाण-दंसणे समुप्पज्जा,
कृश शरीर वाले पुरुष को ज्ञान-दर्शन उपन होता है, किन्तु नो बढसरीरस्स,
दृढ़ शरीर वाले को नहीं, वडसरीरस्स नाममेगस्स णाण-ईसणे समुप्पज्जद्द,
दृढ शरीर वाले पुरुप को जान-दर्शन उत्पन्न होता है, किन्तु नो किससरोरस्स,
कृश शरीर वाले को नहीं, एमस्स किससरीरस्स वि पाण-सणे समुप्पज्जा, ___ कृश और दृढ़ शरीर बाले पुरुष को भी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न बहसरीरस्स वि,
होता है, एगस्स नो किससरीरस्स गाण-दसणे समुपज्जइ, ___ कृश और दृढ़ शरीर वाले पुए को ज्ञान-दर्शन उत्पन्न नहीं
नो दसरीरस्स। -ठाणं. अ. ४, उ.१, मु. २८३ होता है, अतिसेस नाणदसणाणं अणुप्पत्ति कारणाई
अतिशययुक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति नहीं होने के
कारण१७०. चहि ठाणेहि णिगंथाण वा गिगंधोण वा अस्सि समयसि १७०, चार कारणों से निग्रन्थ और निग्रन्थियों के इस समय में
अतिसेसे गाणसणे समुपज्जिउकामे वि ण समुपज्जेज्जा, अर्थात् तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी तं जहा
उत्पन्न नहीं होते, जैसे१. अभिवखणं-अभिक्खणं त्थिकह भत्तकहं देसकहं रायकह (१) जो निन्य या निम्रन्थी बार-बार स्त्रीकथा, भक्तकथा, कहेता भवति ।
देशाकथा और राजकथा करता है। २. विवेगेण विउस्सम्गेणं गो सम्ममप्पागं भाषित्ता प्रवति । (२) जो निम्रन्थ वा निर्ग्रन्थी विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा
आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित करने वाला नहीं होता। ३. पुस्वरसाबरतकालसमयसि गो धम्मजागरियं जागरहता (३) जो निग्रंग्य य निर्ग्रन्थी पूर्व रात्रि और अपररात्रिकाल के भवसि ।
समय धर्म-जागरण करके जागृत नहीं रहता ।