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________________ सूत्र १७०-१७२ अतिशय-युक्त मान-दर्शन की उत्पत्ति के कारण ज्ञानाचार परिशिष्ट ११५ ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म- (४) जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्धी प्रासुक, एरणीय, उंछ और गसित्ता भवति । सामुदानिक भिक्षा की सम्यक प्रकार से गवेषणा नहीं करता। इच्छतेहि चहि ठाणेहि णिग्गंधाण वा णिम्पंथीण वा इन चार कारणों से निग्रंन्च और निर्ग्रन्थियों को तत्काल -जाव-(अस्सिं समयसि अतिसेसे गाणसणे समुप्पज्जिउ- अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी रुक जाते हैंकामे वि) णो समुप्पज्जेज्जा । उत्पन्न नहीं होते। -ठाणं. अ.४, उ, २, सु. २८४ अतिसेस नाणदसणुप्पत्ति कारणाई अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति के कारण१७१. चहि वाहि णिगंथाण पाणिग्गंथोग वा अस्सि समय सि १७१, चार कारणों से निग्रंन्ध और निर्गन्थियों को अभीष्ट अति अतिसेसे णाणसणे समुप्पग्जितकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा – शप-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न होते हैं, जैसे -- १. इथिकहं भत्सकहं देसकह रायकहं जो कहेता भवति । (१) जो स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा नहीं कहता। २. विवेगेण विउस्सगेणं सम्ममप्पणाणं भावेत्ता भवति । (२) जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा की सम्यक प्रकार से भावना करता है। ३. पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिवं जागरइत्ता (३) जो पूर्वरात्रि और अपरराधि के समय धर्म ध्यान करता प्रवति । हुआ जागृत रहता है। ४. कासुयस्स एसणिम्जस्स उछस सामुदाणियस्स सम्म (४) जो प्रासुक, एपणीय, उछ और सामुदानिक भिक्षा की गवेसित्ता भवति । __ सम्यक् प्रकार से गवेषणा करता है। इम्तेहि पाहि काहि गिरगंथाण वा गिरगंशीण वा इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्गन्धियों के अभीष्ट, -जाव-असि समयंसि अतिसेसे णाणसणे समुप्पजिउकामे अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न होते है। समुपज्जेजा। -ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २५४ णाण-दसणाणं वुढिकरा हाणिकरा य-- ज्ञान-दर्शनादि की वद्धि करने वाले और हानि करने वाले१७२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १७२. चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथाएगेणं नाममेगे कडाइ एगेणं हायइ, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन से हीन होता है, एगेणं नाममेगे वह वोहि हायइ, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन और विनय से हीन होता है, बोहि नाममेगे बढ़ई एगेगं हायड, एक पुरुष ज्ञान और चारित्र से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन से हीन होता है, एगे बोहि नाममेगे बढन बोहि हायइ । एक पुरुष ज्ञान और चारित्र से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२७ और विनय से हीन होता है। [इस चाभंगी का एक वैकल्पिक अर्थ और भी है-- एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है और राग से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है और राग-द्वेष से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान व संयम से बढ़ता है और राग से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान व संवम से बढ़ता है और राग-प से होन होता है।]
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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