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वरणानुयोग
लान निम्रन्थ के लिए कल्पनीय विकट दसियां
सूत्र ६२-६३
१. सिलोदगं वा, २. तुसाद या,
(१) तिलों क (धोया हुआ) पनी. (२) सुषोदक, (३) यबो३. जवोदगं बा,
४, आयाम वा, दक, (४) उबले हुए चावली का ओसामण (म"ड), (५) काजी ५. सोवीरं वा,
६. सुद्धबियर का का जल, (६) प्रासुक शेतल जल अथवा अन्य भी इसी प्रकार अन्णतरं वा, तपगार पाणगजायं पुत्वामेव आलोएन्जा -- का धोया हुआ पानी (धोबन) है, उस देखकर पहले ही साधु
गृहस्थ मे कहे - प. -"आउसो सि वा ! ममिणि ति वा ! दाहिसि मे प्र. -"आयुष्मान् ! गृहस्थ या बहन ! क्या मुझे इन जलों एतो अण्णतरं पाणगजाय ?"
(धोवन पानी) में से कोई जल दोगे?" से सेवं यदंतं परो बवेज्जा
साधु के इस प्रकार कहने पर वह गृहस्प यदि कहे विउ.-"उसंतो समणा! तुम घेवेदं पाणगजायं पडिग्ग- उ०-'आयुष्मन् श्रमण ! जल पात्र में रखे हुए पानी को
हेण वा, उस्सिच्चियाण ओयत्तियाणं वा मिहाहि ।" आप स्वयं अपने पाप से भरकर या जल के बर्तन को टेढ़ा कर तहप्पगार पाणगजाय सयं वा गेण्हेन्जा, ले लीजिए।" गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साध, उस पानी
.. .को स्वयं ले ले। परो वा से बेज्जा, फास्य-जाव-पडिगाहेज्जा।
अथवा गृहस्थ स्वयं देता हो ते उसे प्रासुफ जान कर -~आ. सु. २, अ. १, उ. ७, सु. ३७० -यावत्-ग्रहण कर ले। गिलाण णियंठस्स कप्पणिओ वियडवत्तीओ- .. ग्लान निर्घन्य के लिए कल्पनीय विकट दत्तियाँ६३. णिग्गंधस्स णं गिलायमाणस्स कप्पति तो विपडदत्तीओ ६३. लान (रुग्ण) निन्य साधु को तीन प्रकार को दत्तियां पडिमाहितए, तं जहा--
लेनी कला हैउक्कोसा,
(१) उत्कृष्ट दत्ति-पर्याप्त जल ना कस्मी चावल की
कांजी। मक्सिमा,
(२) मध्यम दत्ति-अनेक बार किन्तु अपर्याप्त जल और
साठी चावल की कांजी। जहरणा।
(३) जघन्य इत्ति-एक बार पी सके उतना जरा, तृग धान्य -ठाण. अ. ३, उ. ३. सु. १८० की कांजी या उष्ण जस ।
१ (क) यहाँ ये तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ख) छटुभत्तितस्स गं भिक्खुस्रा कप्पति तओ पाणगाइ पलिंगाहेत्तए तं जहा-तिलोदए, तुसदए, जबोदए ।
-ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८६ आचारांग की अपेक्षा यह विशेष सूत्र है। (ग) दासावासं पज्जोसबियस छट्टभलियस्स भिक्स्स्स कम्पति तओ पाणगाई पडिग्गा हितए तं जहा-तिलोदगं, तुसोदर्ग, जवोदर्ग।
-दसा. द. ८, मु. ३२ स्थानांग की अपेक्षा यह विशेष मूत्र है। २ (क) यहाँ ये तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ख) अट्ठमभत्तियस्स गंभिक्षुस्स कृप्पंति तओ पापगाई पडिगाहेत्तए, तं जहा-आयामए, सोबोरए. सुखवियडे।
-ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. १८८ आचारांग की अपेक्षा यह विशेष विधान है। (ग) वासावास पज्जोसवियस्स स्टुमभत्तियस्स भिक्खुस्स कापति तो पाणगाई पहिनाहित्तए त जहा-आयाम, सोवीर, सुखवियर्ड।
-दसा. द. ८, सु. ३२