SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२४ चरणानुयोग स्व-स्व-प्रबाव-प्रशंसा एवं सिद्धि लाभ का दावा सत्र २५६-२५८ पुढधी आऊ तेऊ पहा बाउ प एकओ। दूसरे (बौद्धों) ने बताया कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये घसारि धाउणो एवं एवमाहंसु आगगा। चारों धातु के रूप है, ये (शरीर के रूप में) एकाकार हो जाते -सूय. मु. १. अ. १, उ. १, गा. १७-१५ हैं, (तब इनकी जीव-संज्ञा) होती है। पत्तेयवाय पसंसा सिद्धिलामो य स्व-स्व-प्रवाद-प्रशंसा एवं सिद्धि लाभ का दावा२५७. एयाणवीति मेधावि बंमधेरे ण ते बसे । २५७. बुद्धिमान साधक इन (पूर्वोक्त वादियों के कथन पर) पुढो पावाजया सम्बे अक्खापारी सयं मयं ॥ चिन्तन करके (मन में यह) निश्चित कर ले कि (पूर्वोक्त जगत् कर्तृत्ववादी या अवतारवादी) ब्रह्म-आत्मा की चर्या (सवा या आचरण) में स्थित नहीं है। वे सभी प्रावादुक अपने-अपने बाद की पृथक्-पृथक् वाद (भाग्यता) की बका-चढ़ाकर प्रशंसा (बखान) करने वाले हैं। सए सए उबटाणे सिदिमेव प अन्नहा । (विभिन्न मतवादियों ने) अपने-अपने (मत में प्ररूपित) अनुअहो वि होति वसयत्ती सख्वकामसमप्पिए॥ ष्ठान से ही सिद्धि (समस्त गांसारिक प्रपंच रहित सिद्धि) होली है, अन्यथा (दूसरी तरह से) नहीं, ऐसा कहा है । मोक्ष प्राप्ति से पूर्व इसी जन्म एवं लोक में ही अशवर्ती (जितेन्द्रिय अथवा हमारे तीर्थ या मत के अधीन) हो जाए तो उसकी ममस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। सिद्धा य त अरोगा य इहमेगेसि माहितं । इस संसार में कई मतवादियों का कथन है कि (हमारे मतासिद्धिमेव पराका सासए गठिया नरा॥ नुसार अनुष्ठान से) जो सिद्धि (रस-सिद्धि या अष्ट सिद्धि) प्राप्त हुए हैं, वे नीरोग (रोग मुक्त) हो जाते हैं। परन्तु इस प्रकार की डींग हांकने वाले वे लोग (स्वमतानुसार प्राप्त) तथाकथित सिसि को ही आगे रखकर अपने-अपने आशय (दर्शन या मत) में ग्रथित (आसक्त प्रस्त-बंधे हुए) हैं।। असंखुडा अणावश्यं ममिहिति पुणो पुणो। (तथाकथित लौकिक सिद्धिवादी) असं वृत-इन्द्रिय मनःसंयम कप्पकालमुवति ठाणा आसुर किस्विसिय ।। मे रहित होने से (वास्तविक सिद्धि-मुक्ति तो दूर रही) इस अनादि -मूय. सु. १, अ. १, उ. ३, गा. १३-१६ संसार में बार-बार परिभ्रमण करेंगे । वे कल्पकाल पर्यन्त-चिर काल तक असुरों-भवनपनि देवों तथा कित्विषक (निम्नकोटि के) देवों के स्थानों में उत्पन होते हैं । विविह वाय-निरसणं विविध वाद निरसन२५८. आगारमावसंता वि आरपणा या वि पश्यया। २५८. अन्यमती अपने ही मत को श्रेष्ठ मानते हुए इस प्रकार कहते इमं दरिसणमाबना सबकुक्खा विमुच्यती ।। हैं -घर में रहने वाले (गृहस्थ), तपा पन में रहने वाले तापस एवं प्रवज्या धारण किये हुए मुनि अथवा पात्रत-पर्वत की गुफाओं में रहने बाले (जो कोई) भी (मरे) इस दर्शन को प्राप्त (स्वीकार) कर लेते हैं, (वे) सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। से णावि संधि जपचर गंम से धम्मविक जणा। लेकिन वे (पूर्वोक्त मतवादी अन्यदर्शनी) न तो सन्धि को ने ते उ वाइणो एवंग ते ओहतराहिता ।। जानकर (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं.) और न ही वे लोग धर्मवेत्ता हैं । इस प्रकार के (पूर्वोक्त अफलवाद के समर्थक) जो मतवादी (अन्यदर्शनी) हैं, उन्हें (तीबैंकर ने) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को तैरने वाले नहीं कहे।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy