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सूत्र २५८-२५६
मिभ्यारा
संसार की परिभ्रमण
शंभाचार
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से पावि संघि गच्चा गं न ते धम्मविक अणा ।
वे (अन्यसीर्थिक) सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त बेसेज बाइणो एवं प ते संसारपारगा ॥ होते हैं,) तथा वे धर्मज्ञ नहीं हैं। इस प्रकार के जो वादी
(पूर्वोक्त सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे (अन्यतीर्थी) चातुर्गतिक
संसार (समुद्र) के पारगामी नहीं हैं। ते गाविसधि णयान ते धम्मविक जणा ।
___ बे (अन्य मताबलम्बी) न तो सन्धि को जानकर (किया में नेते उमाणो एवंग से गम्भस्स पारगा।
प्रवृत्त होते हैं) और न ही वे धर्म के शाता हैं । इस प्रकार के जो वादी (पूर्वोक्त मिथ्या सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे गर्भ (में
आगमन) को पार नहीं कर सकते । तं गावि संधि जया पं न ते धम्मविऊ जणा।
वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर (क्रिया में प्रवृत्त मे ते उ वाहणो एवं गते जम्मस्स पारमा ।। होते हैं), और न ही वे धर्म के तत्वज्ञ हैं। जो मतवादी (पूर्वोक्त
मिथ्यावादों के प्ररूपक है), वे जन्म (परम्परा) को पार नहीं कर
सकते। ते मावि संधि गच्चा न ते धम्पविक जणा।
वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर ही (क्रिया में जे ते उपाइणो एवं ण ते पुरखस्स पारगा। प्रवृत्ति करते हैं), और न ही थे धर्म का रहस्य जानते हैं। इस
प्रकार के जो वादी (मिथ्यामत के शिकार) हैं, वे दुःख' (-सागर)
को पार नहीं कर सकते। ते गावि संधि पच्चा णं न ते घम्मषिक जणा।
वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त हो जे ते जवाविणो एवं न ते मारस्स पारगा। जाते हैं), वे धर्म नहीं हैं। अतः जो (पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्या
प्ररूपणा करने वाले) वादी हैं, वे मृत्यु को पार नहीं कर सकते । गागायिहाई दुक्खाई अगुभवंति पुणो पुगो ।
वे (मिथ्यात्वग्रस्त अन्य मतवादी) मृत्यु, च्याधि और बुद्धासंसारचपकवालम्मि वाहि-मच-जराकुसे ॥
वस्था से पूर्ण (इस) संसाररूपी चक्र में बार-बार नाना प्रकार के
दुःखों का अनुभव करते हैं-दुःख भोगते हैं। उपचावयाणि गम्छता गम्भमेस्संत गंतसो।
ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने यह कहा कि वे नायपुत्ते महावीरे एषमाह जिणोत्तमे ॥ (पूर्वोक्त अफलवादी अन्यतीर्थी) उश्च-नीच गतियों में भ्रमण करते
-सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. १६.२७ हुए अनन्त बार (माता के) गर्भ में आयेंगे। मिच्छासहि संसार परियणं
मिथ्यादर्शनों से संसार का परिभ्रमण२५६ च्याहि विट्ठोहि सातागारव-णिस्सिता। २५६. इन (पूर्वोक्त) दृष्टियों को लेकर सुखोपभोग एवं बड़पन में सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं अगा।
आसक्त अपने-अपने दर्शन को अपना शरण मानते हुए पाप का
सेवन करते हैं। जहा मासाविणि णानं जातिअंधो बुलहिया ।
जैसे चारों ओर से जल प्रविष्ट होने वाली (छिद्रयुक्त) नौका पच्छज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति ॥
पर चढ़कर जन्मान्ध व्यक्ति पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच
ही जल में डूब जाता है। एवं सु समगा एगे मिच्छट्विट्ठी अगारिया ।
इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि, अनार्य श्रमण संसार सागर से संसारपारकंखो से संसारं अपरियन्ति ।। पार जाना चाहते हैं, लेकिन संसार में ही बार-बार पर्यटन करते
-सुप. सु. १, अ. १, उ. २, गा. ३०-३२ रहते हैं।