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सूत्र २५३-२५६
मात्मषष्ठबार
दर्शनाधार
[१६१
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आयछट्टबाय
आत्मषष्ठवाद-- २५१. संति पंच महाभूता इहमेगेसि आहिसा ।
२५३. इस जगत् में पांच महाभूत हैं, और छठा आत्मा है, ऐसा आयछटा पुर्वेगाड आया लोगे य सासते ॥ कई वादियों ने प्ररूपण किया (कहा) फिर उन्होंने कहा कि
"आत्मा और लोक शाश्वत -नित्य हैं।" नही ते ण विणस्संति नो य उपजए असं ।
__सहेतुक और अहेतुक दोनों प्रकार से भी पूर्वोक्त छहों पदार्थ सध्ने वि सम्बहा मावा नियतीभावमागता ॥ नष्ट नहीं होते, और न ही असत्-अविद्यमान पदार्थ कभी उत्पन्न -य. सू. १, अ.१,उ.१, गा.१५-१६ होता है। सभी पदार्थ सर्वथा नियतीभाव-नित्यत्व को प्राप्त
होते हैं।
अवतारवाद२५४. सुढे अपायए आया इहमेगेसि आहितं ।
२५४. इस जगत् में किन्हीं (दार्शनिकों या अवतारवादियो) का पुणो कोडा-पबोसेणं से तत्य अपरज्झति ॥
कथन (मत) है कि आत्मा शुद्धाचारी होकर (मोक्ष में) पापरहित हो जाता है । पुनः क्रीड़ा (राग) या प्रदोष (हष) के कारण वहीं
(मोक्ष में ही) बन्ध युक्त हो जाता है। रह संबडे मुगी जाए पच्छा होति अपावए।
___इस मनुष्य' भव में जो जीब संवृत-संयम-नियमादि युक्त वियर्ड व जहा भुज्जो नौरथं सरयं तहा ।।
मुनि बन जाता है, वह बाद में निष्णाप हो जाता है। जैसे--- --गय. मु. १, अ. १, उ. ३, गा. ११-१२ रज रहित निर्मल जल पुनः मरजस्क मलिन हो जाता है। वैसे
ही यह (निमल निण्याप आत्मा भी पुनः मलिन हो जाती है।) लोगवायसमिक्खा
लोकवाद-समीक्षा२१५. लोगावायं निसामेज्जा हमेगेसि आहितं ।
२५५. इस लोक में किन्हीं लोगों का कथन है कि लोकवाद-गौराविवरीतपण्णसंभूतं अण्णपण्णयुतितामयं ।।
णिक कथा या प्राचीन लौकिक लोगों द्वारा कही हुई बातें सुनना चाहिए, (किन्तु वस्तुतः पौराणिकों का वाद) विपरीत बुद्धि की उपज है-तस्वविरुद्ध प्रज्ञा द्वारा रचित है, परस्पर एक दूसरों द्वारा कही हुई मिथ्या बातों (गणों) का ही अनुगामी यह लोक
वाद है। अगते णितिए लोए सासते ण विणस्यति ।
यह लोक (पृथ्वी आदि लोक) अनन्त (सीमारहित) है, अंतवं मितिए लोए इति धौरोऽतिपासति ॥ नित्य है और शाश्वत है, यह कभी नष्ट नहीं होता, (यह किसी
का कथन है।) तथा यह लोक अन्तबान ससीम और नित्य है।
इस प्रकार व्यास आदि धीर पुरुष देखते अर्थात् कहते हैं । अपरिमाणं विजानाति हमेयेसि आहितं ।
इस लोक में किन्हीं का यह कथन है कि कोई पुरुष सीमासम्वत्य सपरिमाणं इति धीरो तिपासति ।। तीत पदार्थ को जानता है, किन्तु सर्व को जानने वाला नहीं ।
समस्त देश-काल की अपेक्षा वह धीर पुरुष सपरिमाण–परिमाण
साहित-एक सीमा तक जानता है। जे केद तसा पाणा चिट्ठन्ति अबु शवरा।
जो कोई वस अगवा स्थावर प्राणी इस लोक में स्थित है, परियाए अत्यि से अंजू सेण ते तस-यावरा ॥
उनका अवश्य ही पर्याय (परिवर्तन) होता है. जिससे वे इस से -सूय. सु. १, अ. १, उ. ४, गा. ५-६ यावर और स्थावर से त्रस होते हैं। पंचखंधवायं
पंच स्कन्धबाद२५६. पंच बंधे वर्यतेने वाला उ गमोइणी ।
२५६. कई बाल (अमानी) क्षगमात्र स्थिर रहने वाले पांच स्कंध अन्नो अपनो व हु हैजयं च अहेजयं ।।
बताते हैं । वे (भूतों से) भिन्न तथा अभिन्न कारण से उत्पन्न (सहेतुक) और बिना कारण उत्पन्न (अहेतुक) (आत्मा को) नहीं मानते, नहीं कहते।
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