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चरणानुयोग
अनुस्रोत और प्रतिस्रोत
सूत्र २३६-२४१
आहारोवधियं एतं १ य मे अणुपुत्वेणं विवजहियवं (तरंगरेखावत्) हो जाती है। उसके काले केश सफेद हो जाते हैं, भविस्सति ।
यह जो आहार में उपचित (वृद्धिगत) औदारिक शरीर है, वह
भी क्रमशः अवधि (आयुष्य) पूर्ण होने पर छोड़ देना पड़ेगा। एवं संखाए से भिक्षू भिक्खापरियाए समुट्टिते दुहतो सोगं यह जानकर भिक्षानर्या स्वीकार करने हेतु प्रग्रज्या के लिए जाणेज्जा, तं जहा-जीवा व अजीवा चेब, तसा चेव, समुद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, जैसे कि लोक
थावरा चेव। -सूय. सु. २, अ. १, मु. ६७२-६७६ जीवरूप और अजीवरूप है, तथा अरारूप है और स्थावररूप है। अणुसोओ पडिसोओ -
अनुलोत और प्रतिस्त्रोत२३६. अणुसोयपट्ठिए बहुजम्मि
२३६. अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे है-भोग' पडिसोयलढलक्खेणं ।
मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे पहिसोयमेव अप्पा ।
प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषय-भोगों से बायध्वो होउकामेणं ॥
विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिए-विषयानुरक्ति में
प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। अणुसोयमुहोलोगो ,
जन-माधारण को स्रोत के अनुकूल चलने में सुन की अनुभूति पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । होती है, किन्तु जो सुविहित माधु हैं उसका आधव (इन्द्रियअणुसोमो संसारी ,
विजय) प्रतिस्रोत होता है। अनुस्रोत संसार है (जन्म मरण की पडिसोभो तस्स उत्तारो ।। परम्परा है) और प्रतिस्रोत उसका उतार है जन्म-मरण का पार
पाना है। तम्हा आयारपरक्कमेण, संवरसमाहिबहलेणं ।। इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले, संवर में प्रभूत धरिया गुणा य नियमा य, होति साहूण बट्टटवा ॥ समाधि रखने वाले साबुओं को चर्या, गुणों तथा नियमों की ओर
- दस. चू. २, गा. १-४ दृष्टिपात करना चाहिए । अथिरप्पाणं विविहा उवमा
अस्थिरात्मा को विभिन्न उपमाएँ२४०. जई तं काहिसि भावं, जा जा विच्छसि नारिओ। २४०. यदि तू स्त्रियों को देव उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव बायाविडो व्य हो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥ पैदा करेगा तो वायु से आहत हड (वनस्पति-विशेष) की तरह
अस्थितात्मा हो जायगा। गोवालो भण्डपालो या, जहा तहव्यऽणिस्सरो। जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने के स्वामी एवं अणिस्तरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥ नहीं होते, इसी प्रकार तू भो श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा।
-उत्त. अ.२२, गा. ४४-४५ सामण्ण होणाणं अवट्टिई--
साधता से पतित की दशा२४१. कहं नुकुज्जा सामणं, जो काने न निवारए। २४१. वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) पए पए विसीयतो, संकप्पल्स बस मओ का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग
-उत्त. अ. २, गा.१ पर विषादग्रस्त होता है? धम्माउ भट्ट सिरिओववेयं,
जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों उस घोर विषधर सर्प की अन्नगि विमायमिवप्पतेयं । साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्र होलंति णं दुविहियं कुसीला,
रूपी थी से रहित, बुझी हुई यजाग्नि की भांति निस्तेज और बाढद्धियं घोरविसं व नाग । दुविहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं। रेवधम्मो अयसो अकित्ती,
धर्म से व्युत, अधर्मसेवी और चारित्र का खण्डन करने वाला दुन्नामधेनं च पिहचम्मि । गाधु दमी मनुष्य-जीवन में अधर्म का आचरण करता है. उसका चुयल्स एम्माउ अहम्मसेषिणी,
अयश और अकीर्ति होती है। साधारण लोगों में भी उसका संभिन्नविसस्स य हेटुओ गई। दुर्नाम होता है तथा उसकी अघोगति होती है।