________________
सूत्र २४१
साधुता से पतित को वशा
दर्शनाचार
[१४३
मुंजितु भोगाई पसज्य चेयसा,
यह संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से भोगों को भांगतहाविहं क१ असंजमं बहु। कर और तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं . गई च गच्छे अणमिक्सियं बुह.
दुःख पूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी बोही य से नो मुलभा पुणो पुणो। उसे बोधि मुलभ नहीं होती।
- दस. चू. १, गा. १२-१४ जया य चयई धर्म, अणज्जो भोग कारणा।
अनार्य जत्र भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग से तत्व मुच्चिए बाले, आयई नाबबुज्म में भूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता । जया ओहाधिओ होइ, वो वा पडिओ छम ।
जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहबास में प्रवेश करता सध्वधम्मपरिग्भट्ठो । स पच्छा परितप्पद है तब बह सकलधर्म से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है
जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र। जया य बंदिमो होइ, पच्छा होइ अबंदिमो। प्रबजित काल में साधु वन्दनीय होता है, वही जब उत्पाजित देवया य चुया ठाणा, स पच्छा परितप्पा ।। होकर अबदनीय हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है
जैसे अपने स्थान मे च्युत देवता ।। जया य पूइमो होइ, पच्छा होई अपूइभो । प्रव्रजित काल में साधु पूज्य होता है, वही जब उत्प्रवजित राया व रज्जपरभट्ठो, स पच्छा परितप्पा । होकर अपूज्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे
राज्य-भ्रष्ट राजा। जया व माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । प्रव्रजित काल में साबु मान्य होता है, वहीं जब उत्प्रवजित सेट्ठि न्य कम्बड़े छूढो, स पच्छा परितःपद ॥ होकर अमान्य हो जाता है तब यह वैसे ही परिताप करता है
जैसे कर्बट (छोटे से गांव) में अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी। जया य थेरो होइ, समइक्कंतजोरवणो । यौवन के बीत जाने पर जब वह उत्प्रश्नजित साधु बूढ़ा होता मन्छो व गलं गिसित्ता, स पच्छा परितप्पट ।। है, तब वह वैसे ही परिलाग करता है जैसे काटे को निगलने
वाला मत्स्य। जया य फुकुडंबस्स, कुततीहि विहम्मद । __ वह उत्प्रवजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत हत्यो व बंधणे बद्धो, स पन्छा परितप्पड़ ।। होता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बन्धन में बंधा
हुआ हाथी। पुतवारपरिकिष्णो । मोहसंताणसंतओ । पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से परिपंकोसनो जहा नागो, स पन्छा परितप्पह ॥ व्याप्त वह वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ
हाथी। अज्ज आहं गणो होतो, मात्रियप्पा बहुस्सुओ। आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होता यदि जिनो जह हं रमते परियाए, सामाणे जिणवेसिए ॥ पदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता ।
-दस. च.१, गा. १-६ जो पचहत्ताण महवयाई, सम्म नो पासयई पमाया। जो महाव्रतों को स्वीकार कर भलीभांति उनका पालन अनिम्गहप्पा य रसेसु गिरी, न मूलभो छिन्द बन्धणे से ॥ नहीं करतो, अपनी आत्मा का निग्रह नहीं करता, रसों में मूछित
होता है वह बन्धन का मूलोच्छेद नहीं कर पाता। आउतया जस्स न अस्थि काइ, इरिपाए मासाए तहेसणाए। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप औय उच्चार-प्रस्रवण आयाणनिपखेवदुगुन्छणाए, न धीरजायं अणुजाइ मग ॥ की परिस्थरपना में जो सावधानी नहीं बर्तता, वह उस मागं का
अनुगमन नहीं कर सकता जिस पर वीर-पुष इले हैं। चिरं पि से मुण्डबई भवित्ता, अथिरब्वए तयनियमेही भहूँ । जो यतों में स्थिर नहीं है, तप और नियमों से भ्रष्ट है, चिर पि अप्पाण किलेसदत्ता, न पारए होइ. संपराए । बह चिरकाल से मुण्डन में रुचि रखकर भी और चिरकाल तक
आत्मा को कष्ट देकर भी संसार का पार नहीं पा सकता।
-
-
----
-
-
-
-
-