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________________ २८८] परगानुयोग पृथ्बी हिंसा विषयक विवाद तए ण ते थेरा भगवतो ते अनउत्पिए एवं वासी-"नो तब उन स्थविरों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-आर्यो ! खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुवि पेल्धेमो-जाव- हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (कुचलते) उवहवेमो । नहीं,-यावत्-मारते नहीं। अम्हे अज्जो रोयं रीयमाणा कार्य वा, जोगं मा, रियं हे आर्यो। हम गमन करते हुए कार (अर्थात्-शरीर के वा पच्च देस दसेणं अयामो, पएसं पएसेगं क्यामी, "तेणं लधुनीति-बड़ीनीति आदि कार्य) के लिए, योग (अति-ग्लान अम्हे देस देसेणं वयमाणा, पएस पएसेणं वयमाणा नो पुर्वाष आदि की सेवा) के लिए. ऋत (अर्थात्-सत्य अकायादि-जीवपेश्वेमो-जाव-बहवेमो, संरक्षणरूप संयम) के लिए एक देश (स्थल) से दूसरे देश (स्थल) में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं। तए थे अम्हे पुढवि अपेकचेमागा-जाव-अणुबहवेमागा तिविहं इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से तिविहेगं संजय-जाव-एतपडिया याषि भवामो । दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को नहीं दबाते हुए,-यावत्-नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, लुकमे मे असो ! अपणा चेव तिथिहं तिविहेणं असंजय --यावत्-एकान्त-पण्डित है। किन्तु हे आर्यो ! तुम स्वयं -जाब-एपंतबाला यावि प्रवद । त्रिविध त्रिविध असंयत, यावत् - एकान्तबाल हो।" तए गं ते अन्नजरिवशते थेरे भगवते एवं वयासो-"केणं इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस कारणेणं अम्हे तिविहं सिविहेणं असंजय-जाव-एगंतवाला प्रकार पूछा "आयो ! हम किस कारण से विविध-त्रिविध मावि भवामो? असंयत, यावत्-एकान्तबान हैं" तए गं येरा भगवंतो ते अन्नउत्यिए एवं क्यासी-"तुम्मे पं तब स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा - अज्जो ! रीयं रोषमाणा पुरवि पेच्चेह-जाव-उबद्दवेह, "आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हो, तए णं तुम्मे पुषि पेत्रमाणा-जाव-उबवेमाणा तिविहं - पावत्-मार देते हो । इसलिए पृटजीकायिक जीवों को दबाते तिविहेणं असंजय-जाब-एएतबाला यावि भवा । हुए.- पावत्-मारते हुए तुम त्रिविध-विविध असंयत, -यावत् - एकान्तबाल हो।" तए गते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासो-"तुम्मे इस पर वे अन्यतीथिक उन स्थविर भगवन्तों से यों बोलेगं अजो ! गम्ममाणे अगते, वौतिक्कमिज्जमाणे अबीति- हे आयों! तुम्हारे मत में (जाता हुआ), बगत (नहीं गया) क्वते, रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपले ?" कहलाता है, जो लांधा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने (पहुँचने) की इच्छा वाला पुरुष असम्प्राप्त (नहीं पहुंचा हुआ) कहलाता है। तए मं से थेरा मगवतो ते अनउस्थिए एवं बयासी---"नो तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्य तीर्थकों से इस खलु अज्जो ! अम्ह गम्ममाणे अगते, वौतिक्कमिज्नमाणे प्रकार कहा--आर्यों ! हमारे मत में जाता हुआ, अगत नहीं अधीतिरकते रायगिह नगर संपाविजकामे असंपत्ते," कहलाता, उल्लंघन किया जाता हुआ, उल्लंघन नहीं किया नही कहलाता । इसी प्रकार राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असम्प्राप्त नहीं कहलाता। अहं पं अन्जो गम्ममाणे गए, वोतिक्कमिजमाणे वौतिक्कते, हमारे मत में तो, आर्यो ! आता हुआ “गत", लांघता हुना रायगिह मगर संपाविउकामे संपसे, "व्यतिक्रान्त", और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा तुम्म में अपणा वेद गम्ममा अगए, वीसिक्कमिजमाणे वाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है। हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत अबतिक्कते रायगिह नगरं संपादिकामे असंपत्ते। में जाता हुआ “अगत", लांघता हुआ “अव्यतिक्रान्त" और राज गह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला असम्प्राप्त कह लाता है। तए थेग भगवन्तो ते अनथिए एवं परिहणेति। तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्मतीथिकों को -वि. स. ८, उ.७, सु. १६-२४ प्रतिहत (निरुत्तर) किया ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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