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________________ ३२] चरणानुयोग धर्म के भेद-प्रभेव १०-१. खन्तीए में मंते ! जीवे कि जणयह? प्र--(१) भंते ! धमा से जीब क्या प्राप्त करता है? उ०—खन्सीए णं परीसहे जिजद। ज०-क्षमा से वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है। ५०-(२) मुसीए गं भंते ! जीये किमणयह? प्र.-(२) भने ! मुक्ति (निर्लोभता) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-मुत्तोए पं अकिंचणं अपयह । अकिरणे व जीवे अस्थ- उ० मुक्ति से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन लोलाणं पुरिसागं अपत्याणिज्जो भवइ । जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय होता है--उसके पास कोई याचना नहीं करता। प०-३. अजययाए में मंते ! जीवे कि जगयह? प्र--(३) भंते ! ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है ? 3.–अज्जयपाए काजज्जुययं भावुजुययं भामुज्जुययं उ०-ऋजुता से वह काया की मरलता. मन की सरलता, अविसवायगं जग 1 अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे भाषा की सरलता और अवनक वृत्ति को प्राप्त होता है । अवंचक धम्मस्स आराहए भवा। वृत्ति से सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। ५०–४. मदृययाए णं भंते ! जीवे कि जणय? प्र.-[४) मृदुता से जीव क्या प्राप्त करता है। उ० · महवपाए पं अणुस्सियसं जणयइ । अणुस्सियत्ते गं २०-मृदृता से वह अनुद्धत मनोभाव को प्राप्त करता हैं। जोवे मिउमदवसंपन्ने अट्ठ मयढाणाई निवेद॥ अनुदत मनोभाव बाला जीव मृदु-मार्दव से सम्पन्न होकर मद के --उत्त० अ० २६, सु० ४०-५१ आठ स्थानों का विनाश कर देता है। प.-५. पहिलवपाए गंभंते ! जो कि जणयह? प्र० (५) भंते ! प्रतिरूपता (जिनकल्पिक जैसे आधार का पालन करने से) जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-पडिलवयाए णं लापवियं जणयह । लहुए पं जोवे उu प्रतिरूपता से वह हवन को प्राप्त होता है। उप अप्पमत्ते पागलिगे पसरलिगे विमुद्धसम्मत्ते सत्तसमि- करणों के अरणीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्रमत्त, प्रकालिंगइसमते सस्वपाणपजीवससु बीससणिज्जयाबे अप्प- वाला, प्रशस्त लिंग बाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और हिलेहे जिइन्दिए विउलतवसमिइसमन्नागए वावि समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्वों के लिए भवद । विश्वसनीय रूप वाला, अल्प-प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा उत्त० अ० २६. मु. ४४ विपुल तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होना है। प०-5. (क) मावस रचे गं भंते ! जो कि जणह? प्र. - (६) (क) भंते ! भाव-सत्य (अन्तर-आत्मा की सचाई) से जीव क्या प्राप्त करता है? 70-भावसच्चे गं मावविसोहि जणयह । भाचविसोहिए उ-भाव-मध्य मे वह भाव की विशुद्धि को प्राप्त होता है। वट्टमाणे जो मरहन्तपन्नस्तस धम्मम्स आराहगयाए भाव विशुद्धि में वर्तमान जीव अहंत-प्रशप्त धर्म की आराधना के अन्मुट्ठ। अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मरूस आराहणयाए लिए तैयार होता है। अहेत-प्रशप्त धर्म की आराधना में तत्पर अस्मुट्टिता "परलोगधम्मस्स आराहए"हवइ । होकर वह परलोक-धर्म का आराधक' होता है। (ल) करणसच्चे गं भंते ! जीये कि जणपद? (ख) मते ! करण-सत्य (कार्य की सचाई) स जीव क्या प्राप्त करता है? करणचवे गं करणसत्ति जणयइ । करणसच्चे वट्टमागो 30-करण सत्य से वह करण-शक्ति (अपूर्व कार्य करने की जो जहावाई तहाकारी यावि मषह । सामध्य) को प्राप्त होता है। वरण-सत्य में वर्तमान जीव जैसा कहना है वैसा करता है। (ग) जोगसच्चे गंमते ! जीवे कि जणयह ? (ग) भंते ! योग-सत्व (मन, याणी और काया की मनाई) से जीव क्या प्राप्त करता है? जोगसरचे गं जोगं विसोहेइ । उ०-योग-सत्य से वह मन, पापी और काया की प्रवृत्ति - उत्स० अ० २९, मु.५०-५२ को विशुद्ध करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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