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________________ र १११-११४ अन्तर गृहस्थानावि प्रकरण चारित्राचार : एषणा समिति १६५३ तहप्पगारं णिसोहियं अफासुयं-जाव-णो एज्जा । जस प्रकार की स्वाध्यायभूमि को अमासुक समक्ष कर यावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी या अभिकलेजा णिसाहियं गमणाए, भिक्ष या भिक्षुणी स्वाध्याय भूमि में जाना चहे तो से ज्ज पुण निसीहियं जाणेज्जा-अप्पड जान-मक्कडासंताणयं। वह स्वाध्याय भूमि के सम्बन्ध में यह जाने कि जो अंडों तहप्पगार मिसीहियं कासुयं-जाव-घेएज्जा। -यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है उस प्रकार की स्वा व्याय भूमि को प्रासुक सनझबार-यावत्--ग्रहण करे । एवं सेउजागमेण यच्च जाब उदयपस्यापि त्ति । इसी प्रकार इससे आगे का स्वाध्यायभूमि सम्बन्धित वर्णन -आ. सु. २, अ. २, उ.८, सु. ६४१.६४२ शय्येवणा अध्ययन में निरूपित उवय प्रसूत कंवादि तप के वर्णन के समान जान सेना चाहिए । अंतोगिहठाणाइ पगरणम् अन्तर गृहस्थानादि प्रकरण११२. नो कप्पद निगंयाण वा निगंधीण वा--अंतरपिहंसि ११२. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को गृहस्थ के घर में या दो घरों आसपसरसा, चिटिशए पालिसीसर का, तुट्टित्तए का, के मध्य में ठहरना, बैठना-यावत्- खड़े होकर कायोत्सर्ग करना निदाइत्तए वा, पयलाइत्तए वा, वसग वा, पाणं वा, साइमं नहीं कल्पता है। वा, साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चार वा पासवर्ग वा यदि वह यह जाने कि-मैं व्याधि-ग्रस्त, जरा-जीर्ण, तपस्वी खलं वा सिंघाणं वा परिवेत्तए, सज्मायं वा करित्तए, क्षाणं या दुर्बल हूँ। वा, शाइसए, फाउत्सर्ग वा करित्तए, ठाणे वा ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणिज्जा - वाहिए, जराअण्णे, तबस्सी, अथवा (भिक्षाटन से) क्लान्त कर मूक्छित हो जाए या दुष्यले, किलते मुन्छेन्ज वा, पवडेज्ज वा एवं से कप्पड गिर पड़े तो उसे गृहस्थ के घर में या दो परों के मध्य में ठहरना अंतरगिहंसि आसइत्तए वा जाव-ठाणं वा ठाइत्तए। -पावत्-कायोत्सर्ग कर स्थित होता कल्पता है। - -कम.उ. ३, सु. २१ अवग्रह ग्रहण विधि-४ पंचविहा उग्गहा पांच प्रकार के अवग्रह११३. सुर्य मे आउस तेर्ण भगवया एवमक्खायं-इन खलु बेरेहि ११३. हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार सुना मगवंतेहि पंचविहे उग्गहे पणते, तं जहा है कि इस जिन-प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने पांच प्रकार का अवग्रह अर्थात् पाँच प्रकार की आज्ञा बताई है। जैसे कि१. देवियोगहे, २. रामओगहे, (१) देवेन्द्र-अवग्रह (२) राजावग्रह, ३. गाहावतिउगहे, ४. सागारिय उग्गहे. (३) गृहपति-अवग्रह, (४) सागारिक-अवग्रह, और ५. साहम्मिय उग्गहे। (५) साधर्मिक-अवग्रह । -आ. सु. २, अ.७, उ. २, सु. ६३५ उग्गह गहण विहि आज्ञा ग्रहण करने की विधि११४. विहयधूया नायकुलवासिणी, सा वि यावि ओगह अणुश्न- ११४. पिता के घर पर जीवनयापन करने वाली विधवा लड़को वेयन्वा किमग पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा. से वि या की भी आज्ञा ली जा सकती है अतः पिता, भाई, पुत्र का तो वि ओगहे ओगेव्हियग्वे । पहे वि ओग्गही अणुनवेयय्यो। कहता ही क्या ? उनकी भी आज' ग्रहण की जा सकती है तथा -बव. उ.७, सु. २४-२५ मार्ग में ठहरना हो तो उस स्थान की भी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। १ वि० स०१६, उ०२, सु० १०
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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