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________________ ६५४] चरथानुयोग पूर्वगृहीत नवग्रह के ग्रहण की विधि पुध्व गहिय उग्गहस्स गहण विहि पूर्व गृहीत अवग्रह के ग्रहण की विधि११५. बाल इत्य, कसरि गवि परिहार- ११५. कोई अचित्त उपयोग में आने योग्य यस्तु भी उपाश्रव में रिहे सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुनवणा चिट्ठा अहालंदमदि हो उसका भी उनी पूर्व की (विहार करने वाले श्रमणो से गृहीत) उग्गहे। आज्ञा से जितने कान रहना हो उपयोग किया जा सकता है। से बत्थूसु-अव्वावडेट अबोगसु अपरपरिम्यहिएम. अमर- जो घर, काम में न आ रहा हो, कुटम्ब द्वारा विभाजित न परिग्गहीएसु सच्चैव जग्गहस्स पुच्चागुलवणा चिट्ठइ अहाल द- हो, जिस पर किसी अन्य का प्रभुत्व न हो अथवा किसी देव यावि उग्गहे। द्वारा अधिकृत हो तो उसमें भी उसी पूर्व की (विहार करने वाले श्रमणों द्वारा ग्रहीत) अज्ञा से जितने काल रहना हो ठहरा जा सकता है। से वत्थूसु वायदेसु परपरिम्गहिएसु भिक्षुमावस्स अट्टाए जो घर काम में आ रहा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित हो घोच्चपि उम्गहे अणु अवेयावे सिया अहालन्दमवि उगहे।। वा (पूर्व रहे श्रमों के विहार करने पर) अन्य में परिगृहीत हो गया हो तो भिक्षु भाव के लिए जितने समय रहता हो उसकी दुनरी धार आज्ञा लेनी चाहिये । से अणुकुसुवा, सच्चेव जग्गहस्म पुब्वाणुनवा चिट्टइ। मिट्टी आदि से निर्मित दिवाल के पास, ईट आदि से निर्मित अहालंदमवि उग्गहे। --कप्प. उ. ३, सु. २६-३२ दिवाल के पास, चरिका (कोट के यास का मार्ग) के पास, खाई के पास, सामन्य पथ के पास, बाड या कोट के पास भी उसी पूर्व की (बिहार करने वाले श्रमणों द्वारा ग्रहीत) आज्ञा से जितने काल रहना हो ठहरा जा सकता है। उग्गह खेत्तपमाणं अवयह क्षेत्र का प्रमाण११६. से गामसि वा जाव-सन्निवेससि वा कप्पद निरगंधाण बा ११६. निर्ग्रन्थों और निम्रन्थियों को ग्राम यावत्-सन्निवेश में निग्गंधीण वा सध्वी समता सक्कोसं जोयणं उग्गहं चारों ओर से एक कोश सहित एक योजन का अवग्रह ग्रहण ओगिहिसाणं चिद्वित्तए। -कप्प. उ. ३. सु. ३४ बरके रहना कल्पता है, अर्थात् एक दिशा में दाई कोश क्षेत्र में जाना आना बाल्पता है। जग्गह गहण बसण-विकेगा अवग्रह के ग्रहण करने का और उसमें रहने का विवेक११७. से आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु वा, अगुवाइ उगह ११७. साधु पथिकशालाओं यावत् –परिवाजकों के आवासों जाएज्जा, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समट्टिाए ते जग्गाहं का विचार करके अवग्रह ग्रहण करे, उस उपाश्रय के स्वामी की अषुण्णवेज्जा -- या जो अधिष्ठाता हो तो उसकी आज्ञा माँगे और कहेकाम खलु आउसो ! अहालवं अहापरिणाय वसामो, जाव "हे आयुष्मन् ! आफबी इच्छानुसार जितनी अवधि तक आउसो, जाव आउसंतस्स उम्गहे, गाव साहम्मिया, एता जितने काल तक की अनुमा दोगे उतने समय तक हम निवास ताब जगह ओगिणिहस्सामो तेण पर विहरिस्सामो।' करेंगे और जितनी अवधि तक आयुष्मन् की अनुज्ञा है उस अवधि में यदि अन्य सामिक जितने आएगे के भी उसी अवधि तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे उसके बाद हम और वे विहार फर देंगे।" से कि पुण तत्थ उम्महसि एषोग्राहियंसि ? उक्त स्थान में अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या क्या विवेक रखे? जे तत्व समणाण वा, माहणाण वा, दंलए वा, छत्तए वा वह यह ध्यान रखे कि-वहाँ पहले उहरे हुए शाश्यादि -जब-चम्मछेदणाए वा, त णो अतोहितो बाहि गीणज्जा, श्रमगों या ब्राह्मणों के दार, छत्र यावत्-चच्छेदनक आदि १ आ. सु.२, म.७.उ. १, सु. ६००
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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