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सूत्र '२७१-७७४
मार्ग में रत्नाधिक के साथ गमन के विति-निषेध
चिारित्राचार
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प०- माउस तो समगा ! के तुम्भे, फओ वा एह, कहि वा --"आयुष्मन् श्रमण या श्रमणी ! माप कौन हैं? कहाँ गछिहिह ?
से आए हैं ? और कहाँ जाएंगे ?" उ०—जे तत्थ आयरिए या, उवमाए या, से मासेज वा, उ० इस प्रश्न पर जो आचार्य या उपाध्याय साय में हैं,
वियागरेज वा, आयरिय-उवज्झायस्स भासमाणस्स वे उन्हें सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। आचार्य या वा, वियागरेमाणस्स या णो अतरा भास करेज्जा, उपाध्याय गामान्य या विशेष रूप से उनके प्रश्नों का उत्तर दे ततो संजयामेव आहारातिणियाए इज्जेज्जा। रहे हों, तब वह साधु या साध्वी बीच में न बोले । किन्तु मौन .. आ. सु. २, अ. उ. ३. स. ५०५ रहकर यथारत्नाधिक क्रम से उनके साथ ग्रामानुग्राम विचरण
करे । मरगे रयणाहिये हि सद्धि गमणस्स विहि-णिसेहो- मार्ग में रत्नाधिक के साथ गमन के विधि-निषेध७७२. से भिक्खू वा भिक्खूणी चा आहारातिणियं गामाणुगाम ७७२. रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े) साधु या साध्वी
दूइज्जमाणे णो राइणि यस्स हत्येण हत्थं, पादेण पाई, कारण के साथ प्रामानुग्राम विहार करता हुआ मुनि अपने हाथ से कार्य आसादेज्जा । से अणासादए अणासायमाणे ततो संजया- रत्नाधिक साधु के हाथ का, अपने पर रो उनके पैर का तथा मेष आहाराइणि गामाणगाम दूइज्जेज्जा ।
अपने शरीर से उनके शरीर का (अविधिपूर्वक) स्पर्श न करे । -आ. सु. २. अ.३, उ. ३, सु. ५०८ उनकी आशातना न करता हुआ साधु यारत्नाधिक क्रम से
उनके साथ ग्रागानुग्राम विहार करे । मम्मो रयणाहियाण विणी
मार्ग में रत्नाधिक का विनय७७३. से भिक्खू वा मिक्खूणो वा आहाराऽणि गामाणुगाम दूइज्ज- ७७३. रत्नाधिक गाधुओं के साथ प्राभानुग्राम निहार करने वाले
माणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते गं पाडिपहिया साधु या साध्वी को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ प्रतिएवं वदेज्जा --
पथिक (यात्री) मिलें वे यों पूछे कि प०-आउसंतो समणा ! के तुम्मे को वा एह, कहि वाप.-."आयुष्मन श्रमण ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए गमिछहिह ?
है? और कहां जाएंगे ?" उ०—जे तत्व सम्वरातिणिए से भासेज्ज वा वियागरेज्ज उ.- (ऐमा पूछने पर) जो उन साधुओं में सबमे रत्नाधिक
वा, रातिणियस्स भासमाणस्स वा, वियागरेमाणस्स हैं, वे उनको सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। जब या गो अंतरा भास भासेज्जा। सत्तो संजयामेव रताधिक सामान्य या विशेष रूप से उन्हें उत्तर दे रहे हों तब गामाणुगाम दूइज्जेज्जा।
वह साधु बीच में न बोले । किन्तु मौन रहकर उनके साथ --आ. सु. २, अ. ३, इ. ३. मु. ५०६ ग्रामानुग्राम विहार पारे । येराणं येयावडियाए परिहारकप्पष्ट्रियस्स गमावसया स्थविरों की सेवा के लिए परिहार कलस्थित भिक्ष के विहि-णि सेहो पायच्छित्त च
गमन सम्बन्धी विधि-निषेध और प्रायश्चित्त-- ७१४, परिहार-पप्पट्टिए भिक्खू बहिया घराणं व्यावडियाए ७३४. परिहार कल्प में रियन भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) गच्छज्जा, थेरा य से सरेज्जा ।
अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर की वैयावृत्त्य (सेवा) के लिए जावे,
उस समय स्थविर उसे स्मरण दिलाएं किफप्पड़ से एगराइयाए पडिमाए । जंज जे प विस अन्ने "हे भिक्षु ! तुम परिहार तप रूप प्रायशि दत्त कर रहे हो साहम्मिया विहरति तं गं तं गं दिसं उलित्तए। नो से अन: "बिधाम के लिए जहां मुझे ठहरना पड़ेगा वहां में एक कप्पइ तत्थ विहारबत्तियं वत्थाए ।
रात से अधिक नहीं ठहरूँगा" ऐसी प्रतिज्ञा करो और जिस दिशा में कम्ण भिक्षु है उस दिशा में जाओ । मार्ग में विश्राम के निए तुम्हें एक रात्रि ठहरना ही कल्पता है किन्तु एक रात में अधिक ठहरना नहीं कल्पता है।"