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________________ Yes] परणानुयोग स्थविरों की सेवा के लिए विधि-निषेध और प्रायश्चित कtus से तत्व कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि मिट्टियंसि परो एक्यासह भो! एमरावं वा अज्जो दुरायं वा" एवं से कम्पइ एगरायं वा दुरायं वा । नो से कप्पड़ पर एगरायाओ वा दुरायाओ वर वत्थए । P जेणं तस्थ एमरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसह से संतरा एवा परिहारे का। परिहार-कापट्टिए भिक्यू बहिया देणं यावडियाए गच्छेज्जा, पेरा य से तो सरेज्जा कम्पट्ट से निव्विसमाणस्स एगराइए पडिमा विहरति तं णं तं गं बिसि उबलिए । नो से कम्प सत्य विहारवतियं बत्थए । कम्पs से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च गं कारणंसि निट्ठियंसि परोवएज्जा-बसाहि अज्जी I एगरायं वा दुरायं वा । " एवं से कप्पइ एगरामं वा दुरायं वा वत्थए । नो से कप्पड़ पर एगरायाओ वा दुरायाओ वा बस्थए । जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा बसद से संतरा छए वा परिहारे वा । परिहार- कम्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा येरा य से सरेजा था, तो सरेज्ना वा । sors से निविसमाणस एगराइए पडिमाए जं मं मं णं दि अपने सामिया विहरति लिए । तं संजय नो से कप तर विहारवत्ति बथए । दिति भन्ने सहर किसी कारणवश उसे कप्प से तस्य कारण वत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा - "वसाहि मज्जो 1 एगरायं वा दुरायं वा ।" एवं से कप्पड़ एगरावं या बुरा वा वत्थए। नो से कप्पद पर एमरायाओ वा राया था थए । जै तत्य परं एगरायाओ वा बुरायाओ वा वस छए या परिहारे वा । व० उ० १ · से संतरा ० २०-२२ रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कल्पता है । कारण के समाप्त होने पर भी यदि कोई भि कहे हे आये ! भिक्षु कि - तुम यहाँ एक-दो रात और बसों" तो, एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु बाद में उसे वहाँ एक दो रात और रहना नहीं कल्पता है । सूत्र ७७४ यदि वाद में भी वह वहाँ रहे तो "जितने दिन-रात वह वहां रहे आनार्यादि उसे उतने ही दिन की दीक्षा का छेद या परिहार तप का प्रगति दें।" परिहार स्थित भिक्षु (स्वविर को किसी रुग्ण भिक्षु की वैयावृत्य के लिए जावे भाजावे अन्य उस समय यदि तो भी बह हरता पड़ेगा यहाँ भिक्षु विधान के लिए यहाँ मुझे मैं एक रात से अधिक नहीं ठहरूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा करके जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जाने। मार्ग में विश्राम के लिए उसे एक रात रहना कल्पता है। किन्तु एक रात से अधिक रहना नहीं करूपता है । रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कन्पता है। कारण के समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई भिक्षु कहे आर्य ! तुम यहाँ एक-दो और रहो" कि तो उसे वहाँ एक-दो रात और रहगा कल्पता है । किन्तु बाद में उसे वहां एक-दो राव और रहना नहीं करता है। यदि बाद में भी वह वहां रहे तो जितने दिन-रात वह वहाँ रहे आनार्यादि उसे उतने ही दिन दीक्षा काया परिहार तप का प्रायश्चित्त दें" । परिहार-स्थित (स्वविर की आशा से अन्य किसी रुरण स्थविर की वैयावृत्य के लिए जावे उस समय स्थविर उसे (किसी कारणवश) स्मरण दिलावे यान दिलाने को भी वह भिक्षु "मार्ग में विश्राम के लिए जहाँ मुझे ठहरना पड़ेगा वहां मैं एक रात से अधिक नहीं " ऐसी करके जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जावे । मार्ग में विश्राम के लिए उसे एक रात रहना कल्पता है किन्तु एक रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है । रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कल्पता है । कारण के समाप्त होने पर भी यदि कोई भिक्षु कहे कि - "हे आर्य ! तुम यहाँ एक-दो रात और रहो" तो उसे यहाँ एक-दो रात रहना और कल्पता है किन्तु बाद में उसे एक-दो रात और रहना नहीं कल्पता है। यदि बाद में भी यह वहां रहे तो "जिसने दिन-रात वहाँ रहे आचार्यादि उसे उतने ही दिन दीक्षा छेद या परिहारतप का प्रायश्चित्त दें।"
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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