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________________ ६६४] चरणानुयोग अल्पज्ञों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त सूत्र १४८.१५० जे तत्य एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं बसइ, से संतरा जो वहाँ एक या दो रात से अधिक बसता है वह मर्यादा छए वा, परिहारे वा। -कप्प. उ. २, मु. ७ उल्लंघन के कारण दीक्षाच्छेद या तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अगड सुयाणं वसणस्स विहि-णिसेहो पायच्छित्तं च- अल्पशों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त१४८. से गामंसि वा-जाप-सम्रियेससि या एगवगडाए एगदुवाराए, १४८. एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश एगनिक्षमण-पबेसाए नो कप्पड बरणं अगडसुयाण एगयओ वाले ग्राम यावत-सन्निवेश में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) यस्थए। भिक्षुओं को एक माथ बसना नहीं कल्पला है। अस्थि याई के आपार-पप्पघरे, नस्थि याई गं के यदि उनमें कोई आचार कल्पधर हो तो वे दीक्षाच्छेद या छए वा, परिहारे था। परिहार प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं । नत्यि याइंग के आधार-पकप्पधरे से संतरा छए था, यदि उनमें कोई आचार-कल्पधर न हो तो वे मर्यादा उल्लंपरिहारे वा। घन के कारण दीक्षाच्छेद वा रूपरूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं । से गामसि वा-जाव-सनिवेससि वा अभिनिवगडाए, अभि- अनेक प्राकार वाले, अनेव द्वार वाले और अंक निष्क्रमणनिवबुधाराए, अभिनिक्खमण-पवेसाए प्रवेश वाले ग्राम-यावत्- सत्रिवेश में अनेक अकृत-धुत नो कप्पा बहुणं वि अगउसुयाण एगयओ चत्वए। (अल्पज्ञ) भिक्षुओं को एक साथ वसना नहीं कल्पता है। अस्थि याई ण केई आयार-पकप्पधरे जे तत्तिय रणि संव- यदि उनमें कोई आचार-कल्पधर हैं तो वे दीक्षाच्छेद या सइ, नस्थि ण के छेए का, परिहारे वा। तपरूप प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। नस्थि पाई केइ आधार-पकप्पधरे जे तत्तिय रयणि संव- यदि उनमें कोई आचार'-कल्पधर न हो तो वे दीक्षाच्छेद या सइ, सध्यसि तेसि तप्पत्तिम छेए वा, परिहारे वा। तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होते हैं। -दम. उ. ६. सु. १२-१३ नितियशसं बसमाणस्स पायच्छित सुतं नित्य निवास का प्रायश्चित सूत्र - १४६. जे भिक्खू नितिय-वास वसइ, वसंत या साइजइ । १४६. जो भिक्षु नित्यवास अर्थात कल्प मर्यादा से अधिक बसता है, बसवाता है या बसने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं । उसे मासिक उद्घानिक परिहारस्थान प्राय श्चत्त) आता है। -नि. उ. २, सु. ३७ उद्देसियाइसेज्जासु पवेसणस्स गायच्छित सुत्ताई और शिकादि शय्याओं में प्रवेश के प्रायश्चित्त सूत्र१५०. जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणु-पविसइ, अणुप्पविसंत वा १५० जो भिक्षु मौशिक शय्या में प्रवेश करता है, प्रवेश साहज्जा। करवाता है, या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खु सपाहुग्यिं सेग्जं अगुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा जो भिक्षु मपाइ साधु के निमित्त निर्माण के ममय को साइजह। परिवर्तन करके बनाई गई) शय्या में प्रवेश करता है. प्रवेश बरवाता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सपरिकम्म सेज्ज अणुप्पविसइ अणुष्पविस्तं वा जो भिक्षु परिकर्म युक्त (साधु के निमित सुधार की हुई। साइज्जइ। शय्या में प्रवेश करता है, प्रवेश करवाता है, या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजई मासियं परिहारट्टाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६०-६२
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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