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________________ ४२] चरणानुयोग बुलम धर्म सूत्र ५७-५६ एवं सोए पलितम्मि, जराए मरणेग य। उसी प्रकार आपकी अनुमति पाकर जरा और मरण से अप्पागं सारइस्सामि..... .. । जलते हुए इस लोक में से सारभूत अपनी आत्मा को बाहर - उत्त. अ.१६, मा.१६-२४ निकालंगा। दुल्लहो धम्मो-- दुर्लभ-धर्म५८. " इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिल नरा । ५८. इस मनुष्य लोक में या यहाँ मनुष्य भव में दूसरे मनुष्य भी धर्म की आराधना करके संसार का अन्त करते हैं। मिद्वितट्ठा 4 देवा वा उत्तरीए इमं सुतं । मैंने (मुधर्मास्वामी ने) लोकोत्तर प्रवचन (तीर्थकर भगवान सुतं च मेतमेगेसि, अमषुस्सेसु णो तहा ।। की धर्मदेशना) में यह (आगे कही जाने बाली) बात सुनी है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शनादि की आराधना से कर्मक्षय करके निष्ठितार्थ कृतकृत्य होते हैं, (मोक्ष प्राप्त करते हैं। अथवा (कर्म शेष रहने पर) सौधर्म आदि देव बनते हैं। यह (मोक्ष-प्राप्ति -कृतकृत्यता) भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही होती हैं, मनुष्य योनि या गति से भिन्न योनि या गति वाले जीवों को मनुष्यों की तरह कृतकृत्यता या सिद्धि प्राप्त नहीं होती, ऐसा मैंने तीर्थकर भगवान से साक्षात सुना है। अंत करेंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहिते । कई अन्यतीथिबों का कथन है कि देव ही समस्त दुखों का बाबायं पुण एगेमि, दुल्लमेध्यं समुस्सए । अन्त करते हैं, मनुष्य नहीं; (परन्तु ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि) -सूय. सु. १, अ, १५, गा. १५-१७ इस आईत-प्रवचन में तीर्थकर, गणधर आदि का कथन है कि यह समुचत मानव-शरीर या मानव-जन्म (समुच्छ्य) मिलना अथवा मनुष्य के बिना यह समुच्छय-धर्मश्रवणादि रूप अभ्युदय दुर्लभ हैं, फिर मोन पाना तो दूर की बात है। में धम्मं सुखममखंति, परिपुण्णमणेलिसं। जो महापुरुष प्रतिपूर्ण, अनुपम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स धम्मकहा कुतो? हैं, दे सर्वोत्तम (अनुपम) पुरुष के (समम्न द्वन्दों मे उपरमरूप) स्थान को प्राप्त करते हैं, फिर उनके लिए जन्म लेने की बात ही कुतो कयाइ मेधावी, उपपजति सहागता। इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गये हुए (तथासहागता प अपरिग्ना सन लोगस्सऽयुत्तरा॥ . गत) मेधावी (ज्ञानी) पुरुष क्या कभी फिर उत्पन्न हो सकते हैं ? (कदापि नहीं।) अप्रतिक (निदान-रहित) तथागत-तीर्थकर, गणधर, आदि लोक (प्राणिजगत) के अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) नेत्र (पयप्रदर्शक) हैं। छटाणाई सम्पनीवाणं णो मुलभाई भवति, तं जहा - छह स्थान सर्व जीवों के लिए सुलभ नहीं हैं, जैसे--- १. माणुस्सए भवे, २. मारिए खेत्ते जम्म, ३. सुकुले पश्चा- (१) मनुष्य भव, (२) आर्य-क्षेत्र में जन्म, (३) सुकुल में .याती, ४. केवलिपण्णसस्स धम्मस्स सवणता, ५. सुतस्स वा आगमन, (४) केवलिपज्ञप्त धर्म का श्रवण, (५) सुने हुए धर्म का सदहणता'६. सहहितस्स वा पत्तित्तस्स वा रोइतस्स वा सम्मं श्रद्धान, (६) श्रदान किये, प्रतीति क्रिये और रुपि किये गये धर्म काएवं फासणता। -ठाणं अ.६, सु. ४८५ का कार्य से सम्यक् स्पर्शन (आचरण) । १६. समावन्नाण संसारे, नाणा-गोसासु जाइ । ५६. संमारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविध कम्मा नाणाविहा कट्टु, पुढो विसभिया पया ।। नाम वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक-पृषक रूप से समूचे विश्व का स्पर्म कर लेते हैं--सब जगह उत्पन्न हो जाते हैं। उत० अ० ३, गा०१ देखें
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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