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________________ ७१४] चरणानुपोग एकाकी स्थविर के भण्णोपकरण और उनके आदान-निक्षेपण को विधि मूत्र २७८-२८२ तेसि पुण्यामेव उपगहं अणुण्णविय, पडिलेहिय, पमजिजय अपितु उनसे पहले ही ग्रहण करने की आज्ञा लेकर, उनका तओ संजयामेव ओगिरहेज वा पपिण्हेज्ज वा। प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक एक या अनेक बार -आ. सु. २, अ.७, ३.१, सु. ६०७ (ग) ग्रहण करे। एमागी विरस्स भंडोवरणाणं आयाण-णिक्खेवण विही- एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और उनके आदान निश्शेषण की विधि२७६. थेराणं घेरभूमिपत्ताणं कापड दण्डए वा, भण्डए वा, छत्तए २७६. स्थविरत्व प्राप्त (एकाकी) स्थविर को दण्ड, भाण्ड, छत्र, बा, मत्सए वा, लट्रिया वा, मिसे वा, चेसे वा, चलचिलि- मात्रक, लाठी, काष्ट का आसन, स्त्र, वस्त्र की चिलमिलिका, मिलि वा, चम्मे वा, चम्मकोसे वा, चम्मपलिच्छेयणए वा, चर्म, चर्मकोष और चर्मपरिच्छेदनक, मविरहित स्थान में रखकर अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुल पिण्डवाय-परियाए अर्थात् किसी को संभलाकर गृहस्थ के घर मे आहार के लिए पविसित्तए वा निक्खमित्तए था। जाना-आना कल्पता है। कप्पड़ गं सनियट्टचारीणं शेयपि उग्गहं अणुश्वेत्ता परि- भिक्षाचर्या से निवृत्त होने पर जिसको देख-रेख में दण्डादि हरित्तए। -वव.उ. 5, सु. ५ रखे गये हैं उससे दूसरी बार आज्ञा लेकर ग्रहण करना मल्पता है । वंडाईण परिघट्टावणस्स पायच्छित्त-सुतं दण्डादि के परिष्कार करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र२७. जे भिक्खू दण्डव वा, लट्ठिय वा, अवलेहणिय वा, वेणुसूई २८०, जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका और बांस को सुई वा, अण्णउत्थिरण वा, गारपियएण वा परिघट्टावेद वा. को घिसना, सुधारना, उपयोगी बनाना आदि कार्य अन्यतीथिक संठावेइ वा जमावेइ वा । अलमप्पमणो करणयाए सुहममवि या गृहस्थ से कराता है तथा स्वयं कर सकता हो तो गृहस्य से नो कप्पह जाणमाणे मरमाणे अण्णमण्णस्स वियरह वियरतं किंचित् भी कराना नहीं कल्पता है यह जानते हुए, स्मृति में वा साइजह। होते हुए भी अन्य साधु को गृहस्थ से कराने की अनुमति देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहाराणं अणुयाइय। उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १, सु. ४० आता है। बंडगाईणं परिवणस्स पायच्छित्त-मुत्तं दण्डादि के परठने का प्रायश्चित्त सूत्र२८१. जे भिक्खू बंजगं वा-जाव-वेणुसई या पलिमंजियं पलिप्रजिय २८१. जो भिक्षु दण्ड- यावत्-बांस की सुई को तोड़-तोड़कर परिटुवेद, परिष्टुवेत वा साइजह । परठता है, परवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा मासिय परिहारट्ठाण उग्घाइय। उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५. सु. ६६ अतिरित्त उवहि-धरणस्त पायच्छित्त-सुतं अतिरिक्त उपधि रखने का प्रायश्चित्त सूत्र आतारक्त उपाय २८२. जे मिक्खू पमाणाइरितं या, गणणाईरितं वा जयहिं धरेख, २८२. जो भिक्षु प्रमाण से और गिनती से अधिक उपधि धारण धरत वा साइज्जइ। __ करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारद्वार्ण उग्धाहय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. ३.१६, सु. ४० आता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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