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सूत्र ३३१-३३२
अप्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध
पारित्राचार
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आजकाय अणारंभ करण-पइण्णा
अपकायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३५१. माविसमतमखाया अगजीवा पुटोससा अन्नत्थ सत्य- ३३१. पास्त्र-परिणति से पूर्व अप चित्तवान (सजीव) कहा गया परिणएणं।
है। वह अनेक जीव और पृथक सरवों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र
--दस. अ.४, सु.५ अस्तित्व) बाला है। से भिक्खू वा भिक्खणी वा संजय-विरय-पहिय-पच्चखाय. संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष अथवा पावकम्मे दिया वा राओ वा एगो वा परिसागओ वा मुत्ते भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते वा जागरमाण वा
या जागतेसे उवर्ग वा ओसं था हिमं या महियं वा फरगं वा हरतगं उदक, ओस, हिम, धूंजर, बोले, भूमि को भेदकर निकले वा सुखोदगं या उदओरुलं वा कार्य उपोल्लं वा वयं ससि- हुए जल बिन्दु, शुत उदक (अन्तरिक्ष-जल), जल से भीगे णि वा कार्य ससिणि वा वत्धं, न आमुसेरजा न संपु- शरीर अधबा जल से भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध शरीर अथवा सैज्जा न मावीमेमा न पोलेज्जान अक्खोडेजाने पक्खो• जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श करे, न संस्पर्श करे, न उज्जा न आयावेज्जा न पयावेजा,
आपीड़न करे, न प्रपीड़न करे, न मास्फोटन करे, न प्रस्फोटन करे,
न आतापन करे, और न प्रतापन करे, अन्नं न आमुसावेम्जा न संफुसावेज्जा न आवोलावेज्जा न दूसरों से न आमर्श कराए, न संस्पर्श कराए, न आपीड़न पचीसापेक्जा न अक्खोडावेजा न पखोडावेज्जा न आया कराए, न प्रपीड़न कराए, न आस्फोटन कराए, न प्ररफोटन बेज्जा न पयावेज्जा,
कराए, न आतापन कराए, न प्रतापन कराए। अानं आमुसंत वा संफुसतं वा आवोलतं मा पवीलतं वा आमर्श, संस्पर्श, आपीड़न, प्रपीड़न, आस्फोटन, प्रस्फोटन, मक्खीत या पक्खोतं वा मायावंसं या पयावतंबान आतापन या प्रतापन करने वाले का अनुमोदन न करे । समगुजाणेज्मा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से-मन से, करेमि नकारयेमिकरंतं पि अग्नं न समणुजाणामि । वचन से, काया से, न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले
का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। सस्त भंते ! पलिकमामि निवामि गरिहामि अप्पा खोसि- भन्ते ! मैं अतीत के जल-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि।
उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आरमा का
-दस. अ. १, सु. १६ व्युत्तर्म करता हूँ। उपउल्लं अप्पगो कार्य, नेव पुंछ न संसिह। ____ मुनि जद से भीगे अपने शरीर को न पोंछे और न मले । समुप्पेह तहाभूयं, नो णं संघट्टए मुणी ॥
शरीर को तथाभूत (भीगा हुआ) देखकर उसका स्पर्श न करे।
-दस. अ. ६. सु. ७ आउकाइयाणं हिंसा निसेहो
अप्रकायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३२. सम्ममाणा पुढो पास ।
३३२. (हे ! आत्म साधक!) तू देख ! आत्म-साधक, लज्जामान है-(हिंसा से स्वयं संकोच करता हुया अर्थात् हिंसा करने में
लज्जा का अनुभव करता हुआ संयममय जीवन जाता है।) "अणणारा मो" ति एगे पक्षमाणा, अमिण विश्वहि कुछ सानु वेषधारी "हम गृहत्यागी हैं" ऐसा कथन करते सत्येहि जायकम्मसमरिमेणं उपयसत्य समारंभमाणे बणे व हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से अप्काय सम्बन्धी हिंसागनवे पाणे विहिंसति ।
विया में लगकर अपकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। तया अएकायिक जीवों की हिंसा के साथ सदाश्रित अन्य प्रकार के जीवों को भी हिंसा करते हैं।