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सूत्र २२६-२२
अतिरिक्त पात्र वितरण के प्रायश्चित सूत्र
चारित्राचार : एबमा समिति
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अचित्ते बहुफासुए पंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिहा- न हो ऐसी) अचित्त या बहु वासुक स्थडिल भूमि का प्रतिलेखन्न वेयवे सिया।
एवं प्रमार्जन फरके वहाँ (उस पात्र को) परिष्ठापन करे ।
(परठ दे)। एवं जाब दसहि पडिग्गहेछि !
इसी प्रकार तीन चार यावत् स पात्र तक का कपन
पूर्वोक्त कथन के समान कहना चाहिए । जहा पडिगह वत्तत्रया भणिया एवं गोच्छा-रयहरण-चोल- जिस तरह पात्र को वक्तव्यता कही उसी प्रकार गोच्छा, पट्टाग-कंबल-लट्ठी-संधारण वत्तव्बया य भणियवा जाव रमोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, संस्तारक का वर्णन भी दसहिं संथारएहिं उचणिमंतेजा जाव परिदयात्रेयच्ने सिया। कह देना चाहिये यावत् गृहस्थ बस संस्तारक का निमात्रण करे
-वि. स. ८. स. ६, सु. ५-६ यावत् स्थविर के नहीं मिलने पर परठ देना चाहिए। अइरेग-पडिग्गह-वियरण पायच्छित्त सत्ताई .
अतिरिक्त पत्र वितरण के प्रायश्चित्त सूत्र-. २२७. जे भिक्खू अइरेग पडिग्गहं गणि उद्दिसिय गणि समुद्दिसिय २२७. जो भिक्षु गणि के निमित्त अधिक पात्र लेता है, गणि को
तं गाण अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियर, पूछे बिना या निमन्त्रण किये बिना एक दूसरे को देता है, दिलवियरत वा साइजइ।
वाता है या देने वाले का अनुमोदन करना है। जे मिक्खू अइरेगं पडिगई खुर डगस्स या, खुडियाए बा, जो भिक्षु, बाल साधु साध्वी के लिए, अथवा इस साधु भेरगस्स वा, भेरियाए वा, अ-हस्थच्छिपणस्स, अ-पायलिछ- साध्वी के लिए जिनके कि हाथ, पैर, माक, मान, होंठ, कटे हुए एणस्स, अ-णासच्छिण्णस्स, अ-कणच्छिण्णस्स, अणोदच्छि- नहीं है जो सशक्त है, अतिरिक्त पात्र रखने की अनुज्ञा देता है, पणस्स, सक्कस्स बेह, देतं वा साइजद ।
दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अइरेग परिगहं अगस्स वा, इडियाए पर, जो भिक्ष बाल साधु साध्वो के लिए अथवा वुद्ध साधु भेरगस्स पा, रियाए वा, हत्यनिरुपणस्स, पायच्छिष्णस्स, साध्वी के लिए जिन कि हाय. पैर, नाक, होट कटे हुए हैं, जो मासच्छिपणस, कण्णमिछाणस्स, ओटुच्छिणस्स, असक्कस्स अशक्त हैं, अतिरिक्त पात्र रखने की अनुता नहीं देता है न दिलन बेइ, न दतं वा साइज्जद। .
माता है या न देने वाले का अनुमोदन करता है। स सेवमाणे आवजह चाउम्भासियं परिहारद्वाप उम्घायं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिका परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि.उ.१४सु. ५-७ आता है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्मिनी के पात्रषणा का निषेध-२
उद्देसियाई पाय-गहण णिसे हो
औद्दोशिकादि पात्र के ग्रहण का निषेध२२६, से भिक्खू वा, मिक्खूणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा- २२८. भिक्ष या भिक्ष णी पात्र के सम्बन्ध में यह जाने के दाता
अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिम पाणाई-जाव-ससाइं में अपने लिए नहीं बनाया है किन्तु एक सार्मिक साधु के लिये समारटम समुहिस्स, की, मामिच्चं, अन्छि, अणिसिद्ध, प्राणी-यावत्-सलों का ममारम्भ करके बनाया है, खरीदा अमिहर आहट्ट घेएछ ।
है, नधार लिया है. छीनकर लाया है, दो स्वामियों में से एक
की आज्ञा के बिना लाया है अथवा अन्य स्थान से पहा लाया है। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरक वा, अपुरिसंतरका था, इस प्रकार का पात्र अन्य पुरुष को दिया हुआ हो या न बहिया णीहा वा, अणीहा था, अत्तट्टियं वा, अणसट्टियं वा, दिया हो, बाहर निकाला गया हो या न निकाला गया हो, परिमुसं वा, अपरिभुतं वा, बासेविषं वा, अणासेवियं वा स्वीकृत ही या अस्वीकृत हो, उपभुक्त हो या अनुपभुक्त हो, अफासुमं असणिज्जति भण्णमा लामे संते णो पडिग्गा- सेवित हो या अनासेवित हो उस पात्र को अमासुक एवं अनंषणीय हेज्जा ।
समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।