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________________ ६१०] घरमानुयोग एवणीय पात्र सूत्र २२४२२६ निर्गन्ध निर्ग्रन्थिनी के पात्रषणा की विधि-१ एसणिज्ज पायाई एषणीय पात्र२२४. से भिक्खू वा, भिक्षणी वा अभिकंज्जा पायं एसित्तए, २२४. भिक्ष या भिक्षणी यदि पात्र को एषणा करना चाहे तो से जं पुण पायं जाणेज्जा, नं जहा वह पाओं के सम्बन्ध में जाने, वे पात्र इस प्रकार है- . लाउयपायं वा, रारुपायं वा, (१) तुम्बे का पात्र (२) लकड़ी का पात्र और मट्टियापायं या (३) मिट्टी का पात्र तहप्पगारं पाय जे णिग्थे तरुप्पे जुगर्व बसवं अप्पायके इन पत्रों में से जो निग्रंय मुनि तरुण है, रामय के उपद्रव थिर-संधयणे से एगं पायं घारेज्जानो बिइयं । (प्रभाव) से रहित है, बलवान् है. दोग-रहित और स्थिर संहनन –आ, सु. २, अ. ६, इ. १, सु. ५८८ (दृढ़ संहनन) बाला है. वह एक ही प्रकार के पात्र धारण करे, दूसरे प्रकार के पात्र धारण न करे । पडिग्गह-पडिलेहणाणतरमेव पडिग्गह-गहण-विहाणं- पात्र प्रतिलेखन के बाद पात्र ग्रहण करने का विधान२२५. सिया से परो ता पडिग्गहं पिसि रेज्जा, से पुन्यामेव २२५. यदि गृहनायक पात्र (को सुसंस्कृत आदि किये बिना है) आलोएज्जा लापर साधु को देने लगे तो साधु लेने से पहले उनसे कहे - "बाजसो ! ति वा भरणी! ति वा, तुम व गं संलियं "आयुगमन गृहस्थ ! या बहन ! मैं तुम्हारे इस पात्र को पडिग्गह, अंतोतेण पडिले हिस्सामि । अन्दर बाहर-चारो ओर से भली-गानि पतिलेखन कर।" केवलो बूया - आयाणमेयं, क्योंकि प्रतिलखन किए बिना पात्र ग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया है। अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा, सम्भव है उस पात्र में जीव जन्तु हों, बीज हो या हरी वनस्पति आदि हो। अह भिषक्षण पुच्चोवदिट्टा-जाब-एस उपएसे, जे पुवामेव अतः भिलओं के लिए तीर्थकर आदि आन्त पुरुषों ने पहले पडिग्यहं अंतो अंतेण पडिलेहेज्जा । से ही ऐसी प्रतिज्ञा-यावत-उपदेश दिया है कि माधु को पात्र -आ. सु. २, अ.६, उ.१, सु. ५६ ग्रहण करने से पूर्व ही उस पाप का अन्दर बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। थेरगहिय गडिगहाईणं विही स्थविर के निमित्त लाये गये पात्रादि की विधि२२६. निम्मथचणं माहावइकुल पडिग्रहपडियाए अणुपस्टुि २२६. गृहस्थ के पा में पात्र ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट समाणे केह बोहि पडिमाहेहि उवनिमंतज्जा--- निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पात्र ग्रहण करने के लिए उपरिमंत्रण करेएमं आउसो ! अप्पणा पष्टिभंजाहि, एगं मेराणं दलयाहि "आयुष्मन् ! श्रमण इन दो पात्रों में मे एक पात्र आप स्वयं रखना और दूसरा पात्र स्थविर मुनियों को देना।" । "से य तं पडिगाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियव्या सिया। (इस पर) बह निर्गन्ध श्रमण उन दोनो पत्रों को ग्रहण कर जत्येष अणुगसमाणे येरे पासिज्जा तत्व अणुप्पदायवे ले और (स्थान पर आकर) स्थविरें की गवेषणा करे। गवेषणा सिया, नो चेव अणुगवेसमाणे घेरे पासिज्जा. तं नो करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं पर पात्र उन्हें अप्पणा परिभजेज्जा, नो अग्णेसि दाबए, एगते अणावाए दे दे । यदि गवेषण करने पर भी स्थविर मुनि कहीं न दिखाई दे तो उस पात्र का स्वयं भी उपभोग न करे और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, विन्तु एकान्त अनापत जहाँ आवागमन १ कप्पइ पिगंधाण वा, णिग्गथीण वा तमो पायाई धारिसए वा, परिहरित्तए वा. तं जहा-लास्यपाए वा. दारूपाए वा, मट्टिया -सणं. अ. ३, उ. ३, सु. १७८ पाए वा।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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