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૬૪] चरणानुयोग
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प्रातिहारिक वस्त्र प्रहण करने में माया करने का निषेध
वस्त्र प्रत्यर्पण का विधि- निषेध - ५
पाडिहारिय वत्थगणे माया णिसेहो
२०२. से एमओए हेण वा जावाहेण वा विश्ववसिय विश्ववसिय उथा गच्छेज्जा तहपगार ( ससंधियं) वत्वं नो अध्पणा व्हेज्जा, नो अशमस्स देन्जा, नो पामिस्वं कुब्जा, तो वरभेण वश्य-परिणाम करेजा,
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नो परं संकमित्ता एवं वदेज्जर- "आजसंतो समणा aferae एयं वत्थं धारितए वा परिहरिए वा ?" विरं तं नोपनिििदय पतिडिबिय परिवे
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तहृपगार वत्णं ससंधियं तस्स क्षेत्र निसिरेज्जा । नो य णं सातिज्जेज्जा ।
वयणेण वि भाणियन्त्र |
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चिरं वा यो पदिय पतिह्निपि परिमा जहा मेयं यत् पावगं परो मण्णइ ।
सूत्र २०२ - २०३
प्रतिहारिक वस्त्र ग्रहण करने में माया करने का निषेध२०२. कोई एक शिशु को अन्य भए प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करके एक दिन यावत् प दिन कहीं अन्यथ रह रहकर वस्त्र देने जावे तो वस्त्रदाता भिक्षु उस लाये हुए वस्त्र को क्षतविक्षत जानकर न स्वयं ग्रहण करे, न दुसरे को दे न किसी को उधार दे न उस वस्त्र को किसी परत्र के अपने में दे ।
न किसी दूसरे भिक्षु को इस प्रकार कहे "हे आयुष्मत् श्रमण ! इस वस्त्र को रखना या उपयोग में लेना चाहते हो ?" (तथा) उस हड़ वस्त्र के टुकड़े कर के परिपत भी नहीं
करे - फेंके भी नहीं ।
इसी प्रकार अनेक भिक्षुओं के सम्बन्ध में भी आलापक कहना चाहिए।
से एगो मोया सम्म से हंता कोई एक भिक्षु इस प्रकार का संवाद सुनकर समझकर अहमवि मुत्तगं मुत्तगं पारिहारिथं वत्थं जाइता । एगाहे सोचे- मैं भी अल्पकाल के लिए किसी से प्रातिहारिक वस्त्र बा-जाना वा विकी याचना करके एक दिन वा पाँच दिन बड़ी अन्य स्वामि, अवियाई एवं ममेव सिया । रहकर आऊंगा।" इस प्रकार से वह वस्त्र मेरा हो जायेगा । "भाट्टणं संफासे नो एवं फरेज्जा ।"
आ. सु. २, अ. ५, उ. २, सु. ५५३ अपहरण भए त्यस विष्णकरण जिसेहो २०३. सेनानी या दो वताई बत्
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करेवनाणी वाई वाई दण्णलाई करेजा अष्णं वा वत्थं लमिस्सामि ति कट्टु नो अष्णमण्णस्स बेन्जा, नोपामिन् कुज्जर, नो कोण स्थपरिणाम करंज्या, नो परं उपसंकमित्त एवं वदेज्जा- 'आउसंतो समणा ! एवं वत् पारिएका परिहरिए या ?
बीच में से साधे हुए उस वस्त्र को उसी ले जाने वाले भिक्षु को दे दे किन्तु वस्त्रदाता उसे अपने पास न रखे।
( सर्वज्ञ भगवान् ने कहा यह मायावी आचरण है, अतः इस प्रकार नहीं करना चाहिए ।
अपहरण के भय से वस्त्र के विवर्ण करने का निषेध - २०३. साधु मा साथ् सुन्दर वर्ग वा अन्वर ) न करे तथा वि असुन्दर ) वस्त्रों को सुन्दर वर्ग वाले न करे।
"मैं दूसरा नया (सुन्दर) वस्त्र प्राप्त कर लूंगा" इस अभि प्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र के और न ही वन्त्र की परस्पर अदलाबदली करे और न दूरारे साधु के पास जाकर ऐसा कहे कि "है आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना का पहनना चाहते हो ?"
इसके अतिरिक्त उस टुकड़े करके पर भी नहीं, इस भावना से कि मेरे इस वस्त्र को लोग अच्छा नहीं समझते ।