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________________ पत्र ९५६-६६१ ____ अपरिणत-परिणत धान्यों के ग्रहण का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५७६ अपरिणय-परिणय-ओसहोणं गहण-विहि-जिसेहो- अपरिणत-परिणत धान्यों के ग्रहण का विधि-निषेध१५६. से मिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावह कुल पिसवायपडियाए ६५६. भिक्षु मा भिक्षुणी मुहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट अणुपवि? समाणे से ज्जाओ पुण ओसहोओ' जागोज्जा- होकर धान्यों के विषय में यह जाने कि-ये अखण्ड हैं इनकी कसिणाओ, सासिआओ, अविदग्नकडाओ, अतिरिच्छच्छिण्णाओ, योनि नष्ट नहीं हुई है. दो टुकड़े नहीं किये गये हैं, अनेक टुकड़े अध्वोच्छिष्णाओ, तरूणिय, छिवादि, अभिवकतज्जियं नहीं किये गये हैं, अचित्त नही हुई है तथा कच्ची मूंगफलियां पेहाए. अफासुप-जाव-णो पडिगाहेजा, आदि अधूरी भुनी हुई हैं, ऐसा देखकर अप्रासुक जानकर-यावत् ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबाकुलं पिंडशयपडियाए भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट अणुपविळे समाणे से ज्जाओ पुण ओरहीओ जाणेज्जा-अक- होकर औषधियों के विषय में यह जाने क्रि—ये अखण्ड नहीं है, सिणाओ असासियाजो, विलकशाओ, तिरिच्छच्छिण्णाओ, इनकी योनि नष्ट हो चुकी है, ये द्विदल कर दी गई है, अनेक योगिठाणामओ, तरुणियं वा छियाडि. अभिवकत भज्जियं' टुकड़े कर दिये गये हैं, अचित्त हो चुकी है, तथा कच्ची मूंगपेहाए, फासुयं-जाव-पडिगाहेमा ।। फलिया आदि पूर्ण भुनी हुई हैं ऐमा देखकर उन्हें प्रासुक समझ __ -- आ. सु. २. अ. १, र. १. सु. ३२५ वर-यावत्--ग्रहण करे।। कसिण-ओसहि-भुजण-पायच्छितसुत्तं कृत्स्न धान्य भक्षण का प्रायश्चित्त सूत्र-. ६६०. जे भिमखु किसिणाओं ओसहीओ आहारेइ, आहारत वा १६०. जो भिक्षु अखण्ड सचित्त धान्यों का आहार करता है. साइज्जइ। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आषज्जद मासिय परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे नासिक उघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। --नि. उ. ४, सु. १६ भंज्जिय-पिहुयाईण-गहण-विहि-णिसेहो भुने हुए सिट्टे आदि के ग्रहण का विधि निषेध१६१. से भिक्खू वा, भिक्खूगो वा गाहाबाइकुल पिंडयायपडियाए १६१. गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त गया हुआ भिक्षु या अणपविढे समाणे से जं पुण जागेमा -- भिक्षुणी यदि यह जाने कि-. पिट्टयं या-जाव--चाउलपलंच वा सह भअियं अफासुयं हूं आदि के सिट्टे-यावत् -शानी आदि के टुकड़े एक –जाव–णो पडिगाहेम्जा। बार भने हुए है तो उन्हें अप्रामुक जानकर-थावत् -ग्रहण न करे। मे भिवणू वा भिमखूणी वा गाहावाकुलं पिंडयायपडियाए गृहस्थ के घर मे भिक्षा के निमित गया हुन भिक्षु य अगुपविढे समाणे से ज्नं पुण जाणेज्जः भिक्षणी यदि यह जने कि(क) इस मूत्र के टीकाकार "औषधी" शब्द का अर्थ "शालिबीज आदि" मूत्रित करते हैं। मथा औषधी शालिबीजादिका एवं जानीयात् । औषध्यो जातिमात्रस्युः अजातो सर्वमौषधम् । -अमरकोष काण्ड २, वर्ग ४ जातिमाविवक्षायाम् ओषधीः शब्द प्रयोगः । सर्वम् इत्यनेन घुत तैलादिकमप्यौषधशब्दवाख्यम् ।। औषधिः फसपाकान्ता एक वीहि यवादेः । -अमरकोष काण्ड २, वर्ग ४ सभी प्रकार के पके धान्यों को 'औषधी" कहा गया है। वर्तमान में औषधी शब्द केवल जड़ी बूटी आदि दवाइयों में रूड हो गया है । उसकी यहां विवक्षा नहीं है। (ख) वव. उ. ६, सु. ३३-३४ २ तरूणि वा छेदाडि, आमियं भन्जिय सई । तिष पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारितं ।। -दस. अ. ५, उ. २, गा २० कृलन नन्द का यद्यपि अखण्ड अर्थ होता है फिर भी यहाँ द्रष्यकृत्स्न न समझकर भावकृत्स्न समझना चाहिए। इसका फलितार्थ यह है कि जो अखण्ड धान्य स्त्रपरिपत न होने से सचित्त है उसके खाने का यह प्रायश्चित्त विधान है। क्यों कि अनगड शस्त्रपरिणत अवित्त धान्य के परिभोग का आचारसंग मु.२, अ. १.उ.१ में विधान है। निधीयभाष्य में मचित्त या अचित्त अखण्ड धान्य खाने से होने वाली हानियों का विस्तृत वर्णन है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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