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परणानुयोग
मार्गावि में वस्त्र की पाचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र
पत्र २१७-२२१
उग्घोस जायणाए पायच्छित्त सुत्ताई
मार्गादि में वस्त्र की याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र११२ गाना गागं वा, उरामा , अणुवासग २१७. जो भिक्ष स्वजन से, परिजन से, उपासक से. अनुपासक
वा, गामंतरंसि का, गामपहरारंसि था, बत्थं ओमासिय से, ग्राम में या ग्राम पथ में, वस्त्र मांग-मांग कर नाचना करता है, ओभासिय जायह, जायंत वा साइज्जइ ।
याचना करवाता है या याचना करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू गायग वा, अणायगं वा, उवासगं वा, अणुवासगं जो भिक्ष म्बजन को, परिजन को. उपासक को, अनुपानक ता, परिसामग्माओ उटुवेत्ता वस्थे ओभासिर जायइ, जायतं को परिषद् में से उठाकर (उससे) माँग-माँगकर वन्त्र की याचना वा साइजई।
करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारटाणं उरघाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि, उ. १८, सु.७१-७२ आता है। वत्थणीसाए बसणस्स पायच्छित्त सुत्ताई
वस्त्र के लिए रहने के प्रायश्चित्त सूत्र२१८. जे सिक्खू वत्पणीसाए उडुबवं वसइ, वसंत वा साइज्जइ। २१८, जो भिता वस्त्र के लिए ऋतुबद्ध बाल (सी या गर्मी) में
रहता है, रहवाता है या रहने वाले का अनुमोदा बारता है। जे भिक्खू वत्थणीसाए वासावासं वसइ, वसंत या साइज्जइ। जो भिक्ष वरा के लिए वर्षावास में रहता है. रहनाता हे या
रहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ घाउम्मासिय परिहारहाणं उग्याइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिवा परिहारस्थान (प्रायश्चिन)
-नि..१८, सु.७३-८४ आता है। सचेल अचेलसह यसणरस पायच्छित्त सुत्ताई
सचेल अचेल के साथ रहने के प्रायश्चित्त सूत्र२१६. जे भिक्खू सचेले सघेलयाणं मजमे संवसह, संबसंत वा २१६. जो सचेल भिक्ष सनेलिकाओं के बीच में रहना है, रहसाइज्जह।
दाता है यो रहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचेले अचेलयाण मज्ने संवसइ, सवसंत का जो सचेल भिक्षु अवेलिकाओं के बीच में रहता है, रहवाता साइज्जद।
है वा रहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अचेले सचेलयाणं माझे सबसइ, संबसंत था जो अचेल भिशु सचेलिकाओं के बीच में रहता है। रहवाता साइन्जई।
है या रहने वाले का अनुमोदान करता है। जे भिक्खू अचेले बरेलयाण मज्ने संवसइ, संवसंत वा जो अचेल भिक्षु अबलिकाओं के बीच में रहता है। रहवाता साइज्जद ।
है या रहने वाले का अनुमोदन करना है। तं सेवमाणे आयज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्माशिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि, उ. ११, सु. ८०-९० आता है। गिहिवत्योवजोगकरणस्स पायच्छित्त सुत
गृहस्थ के वस्त्र उपयोग करने का प्रायश्चित्त सूत्र२२०. जे भिक्खू विहिवत्थं परिहेद, परिहेंत या साइज्तइ। २१.. जो भिधा गृहस्थ के नास्त्र को धारण करता है, करवाता
है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद चाजम्मासिय परिहारदाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. उ. १२. सु. ११ जता है। दीहमुत्तकरणपायच्छित सुत्ताई ....
देर्घसूत्र बनाने के प्रायश्चित्त सूत्र२२१. जे भिक्षु अप्पणो संघाडीए दोहसुत्ताई' करेइ, करेंत वा २२१. जो भिक्षु अपनी संघाटि (चादर) के लम्बी डोरियां बांधता साइण्जा।
है, बंधवाता है या वाँधने वाले का अनुमोदन करता है। १ नहर को दी सूत्र करने का तात्पर्य यह है कि शरीर पर बांधने में छोटी होती है तो उसके किनारों पर बाँधने के लिए डोरी लगाई जा सकती है वह बन्धन मुत्र (डोरी) ऐसे प्रमाण में हो कि बाँधने के बाद ४ अंगुल में अधिक होरी शेष न रहे।
अगले सूत्र में अनेक प्रकार के कपास (रूई) को दीर्घ मूत्र करने का ज्ञानपर्य है कि उन-उन कपासों (रूइयों। को तकली चर्या आदि से कातना । अतः इस' सूत्र से मून' आदि कासने, कताने आदि का प्रायश्चित कहा गया है ।