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________________ ४४८] परमामुयोग काम-भोगों में आसक्ति का निषेध सूत्र ६६१-६६३ कामभोगेसु आत्ति-णिसेहो काम-भोगों में आसक्ति का निषेध६६. ल कामे ग परयेउजा, विवेगे एसमाहिए। ६६१. लब्ध कामभोगों की इच्छा न करे । इसे विवेक कहा गया आरिपाई सिक्वेज्जा, बुहाग अंतिए तया ।। है । बुद्धों के पास सदा आचार की शिक्षा प्राप्त करे । -सूय. सु. १, ब.., गा. २२ अगिडे सद्द-फासेसु, भारंभैसु अणिस्सिते । शब्द--यावत्-स्पर्श में बनासक्त तथा आरम्भ से अप्रतिबद्ध सव्वेतं समयातीतं, जमेत सविसं बहु॥ रहे । जो यह स्वरूप कहा गया है, वह सब समयातीत (वका- सूय. सु. १, अ.६, गा. ३५ लिक) है। सवारस्या पडिलेहाए आगमता आणवेज्जा मणासेवणयाए। प्राप्त कामभोगों को पर्यालोचना करके उनका सेवन न करने -आ. सु. १, अ. ५, ७. १, सु. १४६(म) को आज्ञा दे और उनके कटु परिणामों का शिष्य को ज्ञान कराये। कामगुणेसु मुसछा-णिसेहो कामगुणों में मूर्छा का निषेध६६२. गुणे से आवट्ट, जे आवट्ट से गुणे। ६६२. जो गुण (शब्दादि विषय) हैं, वह आवर्त-संसार है । जो आवर्त है यह गुण है। उह महं तिरिय पाईणं पासमाणे हवाई पासति, सुणमाणे ऊँचे, नीचे, तिरछे. सामने देखने वाला रूपों को देखता है, सहाई सुति। सुनने वाला शब्दों को सुनता है । उनलं अहं सिरियं पाईण मुच्छमागे रुबेसु मुच्छति, सहेतु ऊँचे, मीचे, तिरछे, सामने विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति यावि। करने वाला, रूपों में मूच्छित हो जाता है, शब्दों में मूच्छित हो जाता है। एस लोगे वियाहिए। यह आसक्ति ही संसार कहा जाता है। एस्थ अगुत्ते अणाणाए। जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। वह इन्द्रिय एवं मन से असंयत है और आज्ञा (धर्म शासन) के बाहर है। पुणो पुणो गुणासाए वंकसमाधारे पमते गारमावसे । जो पुनः पुनः विषयों का आस्वादन करता है। उनका भोग-आ. शु. १, अ. १, उ. ५, सु. ४१ उपभोग करता है, वह बक्र समाचार अर्थात् असंयममय जीवन वाला है। वह प्रमत्त है । तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। सहसवणासत्ति-णिसेहो शब्द-श्रवण की आसक्ति का निषेध६६३. से भिक्खू वा भिषलुगी वा मुइंगसहाणि वा नंदीसद्दागी मा ६६३. संयमचील साधु या माध्वी मृदंग शब्द, नन्दीशब्द या मल्लरोसहाणि वा अण्णतराणि वा तहापगाराइं विरूवश्वाई झलरी (मालर या छैने) के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य वितताई सदाई कण्णसोयपडियाए भो अभिसंधारेग्जा गम- वाद्यों के शब्दों को कानों से सुनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। से भिक्खू वा भिषाणो वा अहावेगतियादं सहाई सुर्णेति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, जैसे कि सं महा : वीणासहाणी वा विचिसहाणि वा बबीसगसहाणि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तुनक के वा सुणयसदाणी वा पवगसद्दाणि वा तुंबवीणियसहाणी वा शब्द, ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, कुण (वाद्य विशेष) के कुणसहाणि वा. अपतराई वा तहप्पगानई विवस्वाणि शब्द, या इसी प्रकार के विविध बीणादि के शब्दों को कानों से सहाणि तताई काणसीपडियाए णो अभिसंधारेजा गमगाए । सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में विचार न करे। से भिक्खू वा भिक्षुणी वा अहावेगतियाई सदाई सुति, साबु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे किसं जहा - तालसहाणि वा कंसतालसदाणि वा अत्तियसहाणि ताल के शब्द, कसताल के बाब्द, लत्तिका (कांसी) के शब्द, वा गोहियसदाणि वा फिरिकिरिसहाणी वा अण्णतराणि वा गोधिका (भांड लोगों द्वारा काँख और हाथ में रखकर बजाये तहगाराई विरुषरुवाई सालसाई कण्णसोयपडिगाए षो जाने वाले वाद्य) के शब्द या बांसुरी के शब्दों को कानों से सुनने अभिसंधारेजा गमणाए। के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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