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________________ I सूत्र ७८४ नौका विहार के विधिनिषेध सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा पुष्वामेव तिरिच्छसंपातिमं णावं जानेज्जा, जागिता से समायाए एवं तमवक्क मेज्जा, एगतम पहिले पहिला एमानो करेजा करिता मसीसोरिवं कार्य पाए पमा ज्जिता सागार, भत्तं पञ्चनखाएजा पच्चक्वाइता एवं पायं जले किया एवं पायें थले किच्चा ततो संजयामेव णावं । ( कारणवश नौका में बैठना पड़े तो) साधु या साध्वी सवंप्रथम तिर्यगामिनी नौका को जाने देख ले। यह जानकर व गृहकी आमा कर एकान्त में जाकर लेप्रोमकरण का प्रतिलेखन करे सभी उपकरणों को इकट्ठे करके बाँध ले फिर सिर से लेकर पैर तक शरीर का प्रमार्जन करे । तदनन्तर आगार सहित आहार का प्रत्याख्यान ( त्यास ) करे यह सब करके एक र जल में और एक स्थल में रखकर यतनापूर्वक उस नौका पर चढ़े । से मिक्लू वा भिक्खुणी वा णावं तुम्हमाणे जो जावातो पुरतो दुरुहेज्जा, णो ण:बामो मग्यतो दुल्हेन्जा, जो पाव तो मज्झतो कहेज्जा.' णो बाहाओ परिक्षिय परिपि लिए उद्दि सिम उद्दितिय मोणमय कोशनिय उभ्यमिय उन मिय पिम्स एज्जा । से णं परो णःबागतो णावागयं वदेज्जा- "बाउसंतो समया । एते तातुमा उकसावा. वोक्साहि वा लिव हि वां रज्जूए वा गहाय आकसाहि " णो से तं परिपरि दुमिओ उग्या से णं परो ण.व.गतो ण.व.गतं बवेज्जा "भाउसंतो समणा ! णो संचाएसि तुमं गावं उपसिलए वा बोक्फ सिलए वा विवित्स ना पहाय आकसिलए" आहर एवं मावाए रज्जुयं सयं चेयं गं वयं गावं उक्कसिस्सामी वा जाय-रज्जुए वा महत्व असिरसा भी जो से परम्परा, सिमी उज्जा । enferment [५०१ से गं परो णावागतो णावागयं वदेज्जा- "आउसंतो समणा । एतं ता तुमं णावं अलित्तेण वा पिट्टण वा वंसेणं वा. वसएण वा अबल्लएण वा वाहेहि।" णो से सं परिणं उ साधु या साची नौका पर चढ़ते हुए न नौका के अगले भाग में बैठे न पिछले भाग में बैठे और न मध्य भाग में तथा नौका के बाजुओं को पकड़-पकड़ कर वा अंगुली से बता-बताकर (संकेत करने या उसे भी मामी करके एक जल की न देखे । यदि नौका में हुए "आयुष् से श्रमण ! तुम इस नौका को ऊपर की ओर खींचो अथवा नौका को नीचे की ओर खींनो या रस्सी को पकड़ कर नौका को अच्छी तरह से बाँध दो, अपवा रख्खी से इसे जोर से कस दो ।" नाविक के इस प्रकार के ( Free प्रवृस्थापक) वचनों को स्त्रीकार नहरे, किन्तु मौन धारण कर बैठा रहे । दिसाको आष्यन् श्रमण ! यदि तुम नौका को ऊपर या नीचे की ओर खींच नहीं सकते या की पकड़ कर नौका को भली-भाँति पाँच नहीं सकते या जोर से कस नहीं सकते तो नाव पर रखी हुई रस्सी को लाकर दो हम स्वयं नौका को कार की ओर खींच लेंगे, - यावत्- रस्सी से इसे जोर से कस देंगे ।" इस पर भी साधु नाविक के इस वचन को स्वीकार न करे, चुपचाप उपेक्षा भाव हे रहे। यदि नौका में बैठे हुए साधु से नाविक कहे कि – “आयुष्मन् श्रमण ! जरा इस नौका को तुम डांड ( चप्पू) से, पीठ से, बड़े बाँस से, बल्ली से या अवल्लक से (बाँस विशेष) तो चलाओ।" इस पर भी साधु नाविक के इस प्रकार के वचन को स्वीकार न करे, बल्कि उदासीन भाव से मौन होकर बैठा खे से गं परो णायागतो णावामयं ववेज्जा- "आउसंतो नौका में बैठे हुए साबु से अगर नाविक यह कहे कि - समणा ! एवं ता तु पाधाए उवयं हत्थेण वा पाएण वा "आयुष्मन् श्रमण ! इस नौका में भरे हुए पानी को लुम हाथ से, मतेण वर पावा गावाचिगएण वार से भाजन से या पाप से नोकर से कर पानी को १ इस सूत्र में नाव के अग्रभाग, मध्यभाग और अन्तिम भाग पर बैठने का निषेध किया है किन्तु कहीं बैठना ? यह नहीं कहा है। चूकार ने इस निर्बंध के कारण और कहाँ बैठने का समाधान इस प्रकार किया है नाव का अग्रभाग देवता का स्थान है। मध्यभान की संज्ञा कूपक है वह बैठने वालों के आने-जाने का स्थान है, अन्तिम भाग नौका के नियामक का स्थान है अतः मध्यभाग और अन्तिम भाग के मध्य में अथवा मध्यभाग और अग्रिम भाग के मध्य में बैठे
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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