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चरणानुयोग
गुरुकुलवास का माहात्य
सूत्र १५६
जहर
दियापोतमपत्तजातं,
सावासमा पवित्रं मणमाणं । समचादयं तरुणमपत्तजातं,
हुंकादि अश्वत्सगर्म हरेषजा ॥
जैसे कोई पक्षी का बच्चा पूरे पंख आये बिना अपने आवासस्थान (वोसले) से उड़कर अन्यत्र जाना चाहता है, वह तरुण (बाल) पक्षी उड़ने में असमर्थ होता है। थोड़ा-थोड़ा पंख फड़फड़ाते देखकर ढंक आदि मांस-लोलुप पक्षी उसका हरण कर लेते हैं और मार डालते हैं।
एवं तु सेह पि अपुट्ठधाम,
निस्सारियं बुसिम मण्णमाणा। दियस्स छावं व अपसजातं,
हरिसु णं पावधम्मा अणेगे।
इसी प्रकार जो साधक अभी श्रुत-चारित्र धर्म में पुष्टपरिपन नहीं है, ऐसे शैक्ष (नवदीक्षित शिष्य) को अपने गच्छ (संघ) से निकला या निकाला हुआ तथा वश में आने योग्य जानकर अनेक पाषण्डी परतीथिक पंख न आये हुए पक्षी के बच्चे की तरह उसका हरण कर लेते (धर्मभ्रष्ट कर देते हैं।
ओसाणमिच्छे मणुए समाहि,
अणोसिते गंतकरे ति गच्चा । ओभासमापो पवियस्स वित्तं,
ण णिक्कसे रहिया अासुपण्णे ॥
गुरुकुल में निवास नहीं किया हुआ साधकपुरुष अपने कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, यह जानकर गुरु के सान्निध्य में निवाम और समाधि की इच्छा करे । मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्यभूत-निष्कलंक चारित्रसम्पन्न) पुरुष के आचरण (वृत्त) को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे । अत: आशुत्रज्ञ साधक गच्छ से या गुरुकुलवास से वाहर न निकले।
जै ठाणो या सयणासणे या,
गुरुकुलवास से साधक स्थान—(कायोत्सर्ग), शयन (शय्यापरक्कमे यावि सुसाधुजुत्ते ।
संस्तारक, उपाश्रय गयन आदि) तथा आसन, (आसन आदि पर समितीसु गुत्तीसु य आयपणे,
उपयेशन-विवेक, गमन-आगमन, तपश्चर्या आदि) एवं संयम में वियागरसे य पुरो वदेज्जा ॥ पराक्रम के (अभ्यास) द्वारा सुसाधु के समान आचरण करता है। -- सूय. सु. १, अ.१४, गा. १-५ तथा समितियों और गुप्तियों के विषय में (अभ्यस्त होने से)
अत्यन्त प्रज्ञावान् (अनुभवी) हो जाता है. वह ममिति-गुप्ति आदि का यथार्थस्वरूप दूसरों को भी बताता है।
सहाणि सोच्चा अदु मेरयाणि,
अणासवे तेसु परिवएज्जा। निई च भिषा न पमाय कुज्जा,
कहकहं पी चितिगिच्छतिपणे ॥
ईर्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर उनमें मध्यस्थ -राग-द्वेग रहित होकर संयम में प्रगति करे, तथा निद्रा-प्रमाद एवं विकथा-कष प्यादि प्रमाद न करे । (गुरुकुल निवामी अप्रमत्त) साधु को कहीं किसी किसी विषय में विचिकित्सा शंका हो जाय तो वह (गुरु से समाधान प्राप्त करके) उससे पार (निश्शंक) हो जाए ।
उद्वेष बुड्ढेणऽणुसासिते ,
रातिणिएणावि समत्वएणं । सम्म तम चिरतो गाभिगच्छे,
णिग्जंतए वा वि अपाराए से ।।
गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए साधु से किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाए तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित (शिक्षित या निवारित) किये जाने पर अथवा भूल सुधारने के लिए प्रेरित किये जाने पर जो साधक उसे सम्यक्तया स्थिरतापूर्वक स्वीकार नहीं करता, वह संसारसमुद्र को पार नहीं कर पाता।