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________________ पूत्र १५६ गुरुकुलवास का माहत्म बहुमान ज्ञानाचार [१०५ विहितेणं समयाणसिठे, साध्वाचार के पालन में कहीं भूल होने पर परतीर्थिक, बहरेण बुद्धक प चोइते तु । अयवा गृहस्थ द्वारा आहेत आगम विहित आचार की शिक्षा अच्चुट्टिताए घरवासिए वा, दिले गाने पर गा पदरा में छोटे या वृस के द्वारा प्रेरित किये अगारिगं वा समयाणुसिठे ।। जाने पर, यहाँ तक कि अत्यन्त तुच्छ कर्म करने वाली घटदासी (घड़ा भरकर लाने वाली नौकरानी) द्वारा अकार्य के लिए निवारित किये जाने पर अथवा किसी के द्वारा यह कहे जाने पर कि 'यह कार्य तो गृहस्थाचार के योग्य भी नहीं है, साधु की तो बात ही क्या है ? ण तेसु कुज्झे व पन्यहेज्जा, इन (पूर्वोक्त विभिन्न रूप से) शिक्षा देने वालों पर साधु _ण यावि किंचि फरसं ववैज्जा । क्रोध न करे, (परमार्थ का विचार करके) न ही उन्हें दण्ड आदि तहा करिस्सं ति पजिस्मगेज्जा, से पीड़ित करे, और न ही उन्हें पीड़ाकारी कठोर शब्द कहे। सेयं षु मेयं ण पमाष कुज्जा ॥ अपितु "मैं भविष्य में ऐसा (पूर्वऋषियों द्वारा आचरित) ही कर गा" इसप्रकार (मध्यस्थवृत्ति से) प्रतिज्ञा करे, (अथवा अपने अनुचित आचरण के लिए "मिच्छामि दुक्कडं" के उच्चारणपूर्वक आत्म-निन्दा द्वारा उससे निवृत हो) माधु यही समझे कि इसमें (प्रसन्नतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करके उससे निवृत्त होने में) मेरा ही कल्याण है। ऐसा समझकर वह पुनः प्रमाद न करे। वसि मूढस्स जहा अमूढा, जैसे यथार्थ और अयथार्थ मार्ग को भली-भांति जानने वाले मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । ध्यक्ति घोर वन में मार्ग भूले हुए दिशामूह व्यक्ति को कुमार्ग से तेणागि मञ्झ इणमेव सेपं, हटाकर जनता के लिए हितकर मार्ग बता देते (शिक्षा देते) हैं, जं मे बुहाउसम्मणुसासयति ॥ इसी तरह मेरे लिए भी यही कल्याणकारक उपदेश है, जो ये वृद्ध, बड़े या तत्वज्ञ पुरुष मुझे सम्यक् अच्छी शिक्षा देते हैं। अह तेग मूढण अमूढगस्त, उस मूठ (प्रमादवश मार्गभ्रष्ट) पुरुष को उस अमूढ़ (मार्गकायष पूया सविसेसजुत्ता। दर्शन करने या जानत करने वाले पुरुष) का उसी तरह विशेष एतोवर्म तत्य उदाहु बीरे, रूप से (उसका परम उपकार मानकर) आदर-सत्कार (पूजा) अपगम्म आथं उवणेति सम्मं ॥ करना चाहिए, जिस तरह मार्ग भ्रष्ट पुरुष सही मार्ग पर चढ़ाने और बताने वाले व्यक्ति की विशेष सेवा-पूजा आदर-सत्कार करता है । इस विषय में वीर प्रभु ने यही उपमा (तुलना) बताई है। अतः पदार्थ (परमार्य) को समझकर प्रेरक के उपकार (उपदेश) को हृदय में सम्यकप में स्थापित करे। या सहा अंधकारंसि राओ, जैसे अटवी आदि प्रदेशों से भलीभांति परिचित मार्गदर्शक मगंण जाणाइ अपस्समाणं। भी अंधेरी रात्रि में कुछ भी न देख पाने के कारण मार्ग को से सूरियस्स अभुगमेणं, भली-भांति नहीं जान पाता, परन्तु वही पुरुष सूर्य के उदय होने मे मग विजाणाति पपासियंसि ।। चारों ओर प्रकाश फैलने पर मार्ग को भलीभांति जान देता है। एवं तु सेहे वि अपृट्ठयम्मे, इसी तरह धर्म में अनिपुण अपरिपक्व शिष्य भी सूत्र और धम्मं न जाणाति अबुज्ममा । अर्थ को नहीं समझता हुआ धर्म (धमणधर्म तत्व) को नहीं जान से कोषिए जिणवयणेण पन्छा, पाता, किन्तु वही अबोध शिष्य एक दिन जिगवचनों के अध्ययनसूशेदए पास सि सक्खुणेव ॥ अनुशीलन से विद्वान् हो जाता है। फिर वह धर्म को इस प्रकार -सूय. सु. १, अ. १४, गा. ६-१३ स्पष्ट जान लेता है जिस प्रकार सूर्योदय होने पर ऑष के द्वारा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों को स्पष्ट जान लेता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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