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पूत्र १५४-१५६
गुरु और सामिक सुभूषा का फल
बहुमान ज्ञानाचार
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प०-६. से गंमते ! संजमे कि फते?
प्र--(६) भन्ते ! संयम का फल क्या है ? उ. -अणण्य फले।
ना--गौतम ! संगम का फल अनाववत्व (संबर-नवीन
कमों का निरोध) है। -७. से गंमते ! अणहये कि फले ?
प्र०-(७) भन्ने ! अनाथवत्व का क्या फल होता है ?
उ-गौतम ! अनावस्व का फल तप है । प०-८. से भंते तवे कि कले?
प्र.-(८) भन्ते ! तप का क्या फल होता है ? उ-बोदागफले ।
उ०—गौतम ! तप का फल व्यवदान (कर्मनाश) है । ५०-६. से गंभो ! यौवाणं कि फले ?
Ho-(8) भन्ते ! व्यवदान का क्या फल होता है ? ज०-अकिरियाफले।
3०-गौतम ! व्यवदान का फल अक्रिय है।। प-10, से गं मंते ! अकिरिया कि फला?
प्र.-(१०) मन्त ! अक्रिय का क्या फल होता है ? उ०—सिद्धिपज्जवसाणकला पण्णत्ता गोयमा !
-गौतम ! अक्रिय का अन्तिम फल सिद्धि है। (अर्थात् –अक्रियता-अयोगी अवस्था प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धिमुक्ति प्राप्त होती है।)
गाथासवर्ण जाणे व विणाणे, पश्चपखाणे व संजमे । (१) (पपासना का फल) श्रवण, (२) (श्रवण अणण्हये तो नेव, बौदाणे अकिरिया सिद्धि ॥ ज्ञान, (३) (ज्ञान का फल) विज्ञान, (४) (विज्ञान का फल)
-वि. स. २, उ. ५, सु. २६ प्रत्याभ्यान, (५) (प्रत्याख्यान का फल) संयम, (६) (संयम का -ठाण. अ ३, उ. ३, सु. १६५ फल) अनाश्रवस्व, (७) (अनाश्रवत्त्र का फल) तप, (4) (तप का
फल) व्यवदान, (९) (भ्यनदान का फल) अक्रिया और (१०)
(अत्रिया का फल) सिद्धि है। गुरु साहम्मिय सुस्सुणया फलं
गुरु और मार्मिक सुथूषा का फल - १५५. ५०-गुरुसाहम्मियमुस्सूसणमाए णं मंते ! जीव कि जणयह? १५५. प्र. भन्ने ! गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा (पयुपासना)
में जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणयाए णं विणयपवित्ति जणयइ। उ०- गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा से वह विनय को प्राप्त
"विणयपडिवन्ने " जीवे अणच्चासारणसोले होता है । विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय नेरहयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदोग्गईओ निहम्बई। या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नरयिक, तियंगवष्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए मगुस्सदेवसोग्गईओ योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। निबन्ध सिद्धि सोग्गई च विसोहेह। पसत्याहं च पं श्लाघा, गुण-प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और विणयमूसाई सम्बकज्जाई साहेछ। अन्ने य बहवे जीवे देव-सम्बन्धी सुगति से सम्बन्ध जोड़ता है। सिद्धि और सुगति विणइसा अवह।
का मार्ग प्रशस्त करता है। विनय-मूलक सब प्रशस्त कार्यों को -~-उत्त. अ. २६, सु. ६ सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर
ले आता है। गुरुकुलवासस्स माहप्प
गुरुकुलवास का माहात्म्य । १५६. गंथं विहाय इह सिक्खमाणो,
१५६. इस लोक में वाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह का त्याग करके उद्धाय सुबंभचेर बसेज्जा।
प्रव्रजित होकर मोक्षमार्ग-प्रतिपादक शास्त्रों के ग्रहण, (अध्ययन), ओषायकारी विणयं सुसिक्खे,
और आसेवन (आचरण) रूप में गुरु से सीखता हुआ' साधक छए विप्पमा न कुज्जा ॥
सम्यकप से ब्रह्मचर्व (नवगुप्ति सहित ब्रह्मवर्य या संयम) में स्थित रहे अवघा गुरुकुल में वास करे । आचार्य या गुरु के सान्निध्य में अथवा उनकी आज्ञा में रहता हुआ शिष्य विनय का प्रशिक्षण ले। (संयम या गुरु-आशा के पालन में) निष्णात साधक (कदापि) अमावन करे।