SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२] चरणानुयोग आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि सूत्र १५१-१५४ आयरिय-उवज्झायाणं सिद्धि आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि१५१. ५०-मारिय-उपसाएक मते ! अवसर मयं वनमार १५३. ३-.--, भनन् । काचार्य और उपाध्याय यदि अपने संगिण्हमाणं, अगिलाए उगिहमाणे कहि भवगह- शिष्यों को बिना ग्लानि के सूत्रार्थ दे और बिना ग्लानि के रत्नहि सिजाइ-जाव-सन्यदुक्खाणमतं करेइ ? अय की माधना में सहयोग दे तो कितने भव ग्रहण करने के पश्चात् मिन्द होते हैं-याव-सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? उ०-गोयमा ! अस्येगइए तेणेव अवगहोणं । उ०-हे गौतम ! कुछ एक तो उसी भव से सिर होते हैं अत्थेगइए दोच्चैणं भवागणं सिज्म । और कुछ एक दो मव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं किन्तु तीसरे भव तच्चं पुष भवरगहणं माइक्कमद ॥ को तो कोई लापता नहीं अर्थात तीसरे भव से तो सिद्ध होते -वि. पा. ५, ज. ६,सु. ११ ही है। आयरिय-उवासणा-. आचार्य की उपासना१५२. जहाहियम्गी जलमं नमसे, १५२. जैसे आहितानि ब्राह्मण विविध आइति और मन्त्रपदों से नाणाहुईमतपयाभिसित्तं अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तएवारियं उचिट्ठएज्जा, शाम सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे । अर्थतनाणीवगओ बि संतो।। -दस. अ. ६. उ. १, मा. ११ गुरु-पूयणं गुरु-पूजा१५३. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्वे, १५३. जिसके समीप धर्मपदों की शिक्षा तेता है उसके समीप तस्सतिए वेणइयं पजे । विनय का प्रयोग करे ! फिर को झुकाकर, हाथों को जोड़कर सक्कारए सिरसा पंजलीओ, (पंचांग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार करे। कायरिंगरा मो मणसा य निन् । लज्जा दया संजम बभचेर, लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचयं कल्याणभागी साधु के कल्लापमागिस्स विसोहिठाणं । लिए विशोधिस्थल हैं। जो गुरु मुझे उनकी सतत शिक्षा देते हैं जे मे गुरु समयमणुसासयंति, उनको मैं सतत पूजा करता हूँ। ते हं गुरु सवयं पूपयामि ।। -दस. अ. ६, उ.१, मा. १२-१३ तहारूबसमण माहणाणं पज्जुवासणा फलं तथारूप श्रमणों माहणों की पर्युपासना का फल१५४.4.--१. तहारूवा गं मंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवास- १५४. प्र.--मन्ते ! तथारूप (जैसा वेश है, तदनुरूप गुणों वाले) मागस्स किं फला पन्जुवासणा? धमण' या माहन की पयुपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? उ०-गोममा ! सवणफसा। उ०-गौतम ! पर्युपासना का फल श्रवण है। १०-२. से गं मते ! सवणे कि कले? प्र०-(२) भन्ते ! उस श्रवण का क्या फल होता है ? उ.-जागफले। उ.-गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। १०-३. से णं भंते ! जाणे कि फले? -(३) भन्ते ! उस ज्ञान का क्या फल होता है? उ०—विण्णाणफले । उ-गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है। ५०-४. से णं भंते ! विष्णाणे किं फले ? प्र०-(४) भन्ते ! उस विज्ञान का क्या फल होता है ? ३०-पचवखाणफले। उ०—गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। प०-५. से पंचते ! पन्चक्खा कि फले? प्र०--(५) भन्ते ! प्रत्याख्यान का क्या फल होता है? ८०-संजमफले। उ०—गीतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy