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________________ ३१२] चरणानुयोग अन्यतीथिकों द्वारा अपत्तादान का आक्षेप-स्पविरों द्वारा उसका परिहार हार सूत्र ४४६ सएशंते थेरा भगवन्तो ते अन्नउत्थिए एवं ययासी- तदनन्तर स्थविर भगवन्तों ने अन्यनीथिकों को इस प्रकार कहा"अम्हे णं अज्जो ! विज्जमाणे बिन्ने, पडिगहेजमाणे पति- "हमारे मत में हे आर्यों ! दिया जाता हुआ "दिया गया" गहिए निसिरिज्ममाणे निसट्ट। अम्हे गं तं णो खलु तं प्रण किया जाता हुआ "ग्रहण किया" पात्र में डाला जाता हुआ गाहावहस्स। "पात्र में डाला गया" ऐसा कथन है। अतः हमें दिया हुआ पदार्थ जब तक पात्र में नहीं पड़ा हो तब तक बीच में से कोई अपहरण करता है तो वह हमारा है, वह गृहस्थ का नहीं है। तए णं अम्हे विन्नं गेम्वामो, विन्नं भुजामो, बिन्नं सातिजामो, अत: हम दिया हुआ ग्रहण करते हैं. दिया हुआ भोजन करते तए थे अम्हे दिन्नं गेहमाणा, दिन्नं भुजमाणा, विन्नं साति- हैं, दिये हए की अनुमित देते हैं। इस प्रकार हम दत्त का प्रहण ज्जमाणा तिविह तिविहेणं संजय-विरय-परिहय पच्चयाय- करते हुए. दन का भोजन करते हुए, दत्त की अनुमति देते हुए, पावकम्मा-जाब-एगंतपंडिया यायि भवामो । विविध-त्रिविध से संयत-विरत-पापकर्म के निरोधक, पाप कर्म के प्रत्याख्यान किये हुए क्रिया रहित, संवृत्त, एकान्त अहिंसक —यायत् -एकान्त पण्डित हैं । तुम्मे " अज्जो! अप्पणा चैव तिविहं तिविहेण असंजय हे आर्यों! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध से असंयत-अविरतअतिरय-अपडिहय-अपच्चरखाय पायकम्मा-जाव-एगतबाला पापकों के अनिरोधक, पापकर्मों के प्रत्याश्यान नहीं किये हुए पावि भवह । –यावत् - एकान्त अशानी हो । तए ते पन्नउस्थिया ते धेरे भगवंसे एवं वयासी तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने स्थदिर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"केण कारणेणं अज्जो अम्हे तियिह तिविहेणं असंजय-अविरय- "किस कारण से हम त्रिविध त्रिवित्र से असंयत्त-अविरतअपडिहय-अपच्चक्खाय पावकम्मा सकिरिया-असंवृद्धा एगत- पापक्रमों के अनिरोधक पापकर्मों के प्रत्याख्यान नहीं किये हुए वंडा एगंतबाला यावि भवामो? -यावत-एकान्त अज्ञानी हैं ? तए गं ते थेरा गयंतो ते अन्नउत्यिए एवं बयासी तदनन्तर जन स्थविर भगवन्लों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा"तुम्मे पं अजो ! अदिन्नं गेहह, अदिन्नं भुजह, अदिन्नं हे आर्यों ! तुम अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते साइज्जइ, तए गं अज्ज़ो ! म अविन्नं गेण्हमाणा. अविन्नं हो, अदत्त की अनुमति देते हो। इस प्रकार हे आर्यो ! तुम अदत्त मुंजमाणा, अविन साइज्जमाणा तिबिहं तिविहेणं असंजय- ग्रहण करते हुए, अदत्त भोजन करते हुए, अदत्त की अनुमति देते अविरय अपडित्य-अपच्चखाय पायकम्मा-जाव-एम.उवाला हुए त्रिविध-त्रिविध के असंयत, अविरत. पापकों के अनिरोधक पावि भवह।" पापक्रमों के प्रत्यास्थान नहीं किये हुए यावत् -एकान्त अशानी हो। तए गं ते अन्ननस्थिया ते थेरे भगवंते एवं बयासी -- तदनन्तर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"केण कारणे अज्जो 1 अम्हे अदिन्नं गेम्हामो, अदिन्न हे आयर्यो ! किस कारण से हम अदस्त ग्रहण करते हैं, अदस्त भुजामो, अविन्न साइज्जामो, तए णं अम्हे अदिन्नं मेहमागा, भोजन करते हैं. अदस्त की अनुमति देते हैं. इस प्रकार अदल्ल अदिन्न भंजमामा, अम्नि साइज्जमाणा तिविहं तिविहेणं, ग्रहा करते हुए, अदत भोजन करते हुए, अदत्त की अनुमति असंजय-अविश्य-अपच्चक्खाय-पावकम्मा-जाब-एगंतवाला देते हुए त्रिविध-विविध असंयत-अविरत-पापकों के अनिरोधक, यावि भवामी।" पापकर्मों के प्रत्याख्यान नहीं किये हए-यावत-एकान्त अशानी होते हैं? तए गं येरा भगषन्सो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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