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________________ सचित लु खाने के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार : एक्णा ममिति [५८३ से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से ज्ज पुण जाणेज्जा --- मिन, या भिक्ष गी यह जाने कि:--- अंतरुच्छ्यं वा-जाव-उच्छु डगलं वा अपंड-जाव-भक्क- इक्षु की मोटी फॉक-कावत्-इक्षु के टुकड़े, अपडे-पावत् डासंताणगं, अतिरिच्छच्छिन्नं अवोच्छिन्न -मकड़ी के जालों से रहित हैं किन्तु 'तिरछे कटे हुए नहीं हैं तथा जीव रहित हुए नहीं है। अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजा। अतः उन्हें अप्रासुक जान्कर-यावत्- वहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा से उजं पुण जाणेज्जा-- भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने किअंतमनायं वा-जाव-उच्छृङगलं वा अप्पंड-जाब-मवक- इल की मोटी फाँकें - पावत्-इक्षु के टुकष्टे अरडे-यावत् डासंताणगं तिरिच्छाग्छिन वोज्छिन-फासुर्य-जाब- -माड़ी के जालों से रहित हैं, वे तिरछ कटे हुए हैं और जीव पहिगाहेज्जा। रहित हो गये है तो अप्रामुक जानकर-यावत्- ग्रहण करें । -आ. सु. २ अ. ७. उ. २, सु. ६२६-६३१ सविसं उच्छु' भुजमाणस्स पायच्छित्तसुत्ताई सचित्त इक्षु खाने के प्रायश्चित्त सूत्र.. २६६. जे मिक्खू सच्चितं उच्छु मुंजद, अजंतं वा साइजद।। ६६६. जो भिक्ष् सचित्त ईन बाता है. पिलाता है, साने राल का अनुमोदन करता है। ने भिक्व सचित्त उन्छु विडसइ, विडसतं वा साइज्जइ । जो भिक्षु मचित ईख को चूसता है, चंगवाता है बूंसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपट्टियं उच्छु' भुजइ, भुजतं या साज्जइ। जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईस का खाता है, खिलासा है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपद्वियं उप विडसइ, विउसंतं चा जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईख को चूसता है, चूंसचाता है, साइज्जइ। चूंसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्त जो भिक्षु सचित्त१. अंतरूम्छु यं का, २. उमछुखंडियं वा, (१) ईख का मध्य भाग, (२) ईरू के खण्ड, ३. उच्छ्चोयगं बा, ४. उच्छुमेरगं वा, (३) ईख के छिलके सहित टुकड़े, (४) ईख का अग्र भाग, ५. उच्छुसालगं वा, ६. उच्छुडगसं वा. (६) ईख की शाया (६) ईप के गोल टुकड़े भुजद, भुजंतं वा साइज्जइ । खाता है, खिलाता है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। के भिक्खू सचित्त' अंतरूच्छुयं वा-जाव-उच्छउगलं वा विडसह जो भिक्षु सचित ईस का मध्य भाग-यावत-देख के गोल विसंतं वा साहज्जइ । टुकड़े मता है, चुसवाता है, चूसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपट्टियं अंतहच्छयं बा-जाब-उच्छङगलं वा जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईख का मध्य भाग-यावत्मजइ, भूजंतं श साइज्जा। ईख के गोल टुकड़े खाता है, खिलाता है, खाने वाले क अनु मोदन करता है। जे मिक्बू सचित्तपट्टियं अंतरूयं वा-जाव-उच्छुडगलं वा जो भिक्षु सचिनप्रतिष्ठित ईख का मध्ये भाग–यावत्विडसइ, विडसंतं वा साहलह । ईख के गोल टुकड़े चूसता है चूंसवाता है, चूंसने वाले का अनु मोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उघाइयं। उसे चातुर्मास्कि उपातिक परिहारस्थान (नायश्चित्त) -नि. उ. १६. सु. ४-११ आता है। अपरिणय-परिणय-लहसुण-महणस्स विहि-णिसेहो- अपरिणत-परिणत ल्हसुन ग्रहण का विधि निषेध१६७. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा अभिकबेज्जा ल्हसुणवणं उबा- १७. भिक्षु या भिक्षणी (विहार करते हुए आवें और) लसुनवन गच्छित्सए, के समीप यदि ठहरना चाहे तो उस स्थान के म्बानी की या जे तत्थ ईसरे, जे तत्प सहिडाए, ते ओग्महं अण्णवेज्जा। संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करे। - -
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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