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________________ १५८ ] चरणानुयोग चौपर नियतिवादी की भद्धा का निरसन एलिए सड्डी भवति कामं तं समणा य माहणा या संपहारिसुमनाए जाव जहा मे एस धम्मे सुखाते सुपण्णत्ते भवति । हरिसाल एमे रिसे किरियमाखति, गे पुरिसे जो किरियमाखति । जे व पुरिसे किरियापुरिसे जौकिरिय साहक्क, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारणमावन्ना । वाले पुण एवं विध्यश्वेिवेति कारणमावन्तं जहा जो असी क्सोमा पिडामा परियाणि वा हंस परो वा कति वा सोयइ वा जुरह का सिप्पइ वा पिड्ड वा परिसद वा परो एतमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विपश्डिवेदेति कारण मावन्ने । मेधायो पुच एवं विपवित कारणमावन्ने अधियामि वा सोयामि वा शनि या तिप्यामि या पिडामा परितयामि वा यो अमेलन कासि परो या दुखति वाया-परितप्यति या मो परी एका एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विष्पष्टियेदेति कारणले से बेमिपाई वा जाव जे ससथावरा पाणा ते संचायाति सूत्र २४६ पुरुषोक्त पाठ के समान जानना चाहिए। पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। उसे धर्मश्रद्धालु जानकर (धर्मोपदेशार्थं ) उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्वय करते हैं। उसके पास जाकर कहते है मैं आपको पूर्वपति और प्रजन्त (सत्य) धर्म का उपदेश करता हूँ ( उसे आप ध्यान से सुने इस लोक में (या दार्शनिक जगत् में) होते हैं - एक पुरुष क्रिया का कथन करता है. किया का कथन नहीं करता, (क्रिया का निषेध जो पुरुष क्रिया का कथन करता है और जो पुरुष किया का निषेध करता है। (नियतिवाद) को प्राप्त है। 1)" दो प्रकार के पुरुष ( जबकि ) दुसरा करता है ) । ये योगों ही अशानी (बान) है, अपने सुख और दुःख के काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह सम झते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा है. शोक (चिन्ता) कर रहा हूँ, दुःख से आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप ) कर रहा हूँ, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूँ, पीड़ा पा रहा हूँ, या संतप्त हो रहा हूँ, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं, तथा जो दूसरा दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, अथवा पीड़ित होता है या संत होता है, वह सब उसके द्वारा किये हुए (कर्मफल) है। इम कारण वह अशजीत्र (काल, कर्म, ईश्वर आदि को गुसदुःख का कारण मानता हुआ ) स्वनिमित्तक ( स्वकृत) तथा परनिमित्तक ( परकृत) सुख-दुःखादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कृत कर्मफल समझता है । परन्तु एकमात्र नियति को ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि "मैं जो कुछ दुःख भोगता हूँ शोकमग्न होता हूँ या संतप्त होता हूँ, मेरे किये हुए कर्म (फल) नहीं हैं, तथा जो दुःख पाता है, पोक आदि से पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, (अपितु यह सव नियति का प्रभाव है ) । दूसरा इस प्रकार वह बुद्धिमान पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुख आदि को यों मानता है कि ये सब निपतित ( नियति के कारण से हुए) हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं । अतः मैं (नियतिवादी) कहता है कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही जौदारिक आदि शरीर की रचना संघात को प्राप्त करते हैं,
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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